नारायण गुरु भारत के महान संत एवं समाजसुधारक थे – बहुजन इंडिया 24 न्यूज

नारायण गुरु भारत के महान संत एवं समाजसुधारक थे

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बहुजन इंडिया 24 न्यूज़ व बहुजन प्रेरणा दैनिक समाचार पत्र ( सम्पादक मुकेश भारती- सम्पर्क सूत्र 9161507983)
लख़नऊ : ( संदीपा राय – ब्यूरो रिपोर्ट ) दिनांक- 26 – अगस्त- 2021- गुरूवार

सम्पादक मुकेश भारती

                                               नारायण गुरु की जयंती।
                          नारायण गुरु भारत के महान संत एवं समाजसुधारक थे
जन्म- 28 अगस्त, 1855; मृत्यु- 20 सितम्बर, 1928) भारत के महान संत एवं समाज सुधारक थे। कन्याकुमारी में मारुतवन पहाड़ों की एक गुफा में उन्होंने तपस्या की थी। गौतम बुद्ध को गया में पीपल के पेड़ के नीचे बोधि की प्राप्ति हुई थी। नारायण गुरु को उस परम की प्राप्ति गुफा में हुई। समाज सुधारक नारायण गुरु द्वारा स्थापित ‘शिवगिरि मठ’ पहाड़ी की चोटी पर स्थित है और उनकी समाधि केरल में सबसे प्रसिद्ध स्मारकों में से एक है। नारायण गुरु को श्री नारायण गुरु के नाम से भी जाना जाता है। उनका जन्म एझावा जाति के परिवार में हुआ था। केरल के जाति-ग्रस्त समाज में उन्हें बहुत अन्याय का सामना करना पड़ा। उन्होंने केरल में सुधार आंदोलन का नेतृत्व किया, जातिवाद को खारिज कर दिया और आध्यात्मिक स्वतंत्रता और सामाजिक समानता के नए मूल्यों को बढ़ावा दिया। नारायण गुरु ने मंदिरों और शैक्षणिक संस्थानों की स्थापना के माध्यम से अपने स्वयं के प्रयासों से दलितों के आध्यात्मिक और सामाजिक उत्थान की आवश्यकता पर जोर दिया।भारतकोश प्रांगण भारतकोश सम्पादकीय कॅलण्डर प्रश्नोत्तरी नारायण गुरु श्री नारायण गुरु नारायण गुरु (अंग्रेज़ी: Narayana Guru, जन्म- 28 अगस्त, 1855; मृत्यु- 20 सितम्बर, 1928) भारत के महान संत एवं समाज सुधारक थे। कन्याकुमारी में मारुतवन पहाड़ों की एक गुफा में उन्होंने तपस्या की थी। गौतम बुद्ध को गया में पीपल के पेड़ के नीचे बोधि की प्राप्ति हुई थी। नारायण गुरु को उस परम की प्राप्ति गुफा में हुई। समाज सुधारक नारायण गुरु द्वारा स्थापित ‘शिवगिरि मठ’ पहाड़ी की चोटी पर स्थित है और उनकी समाधि केरल में सबसे प्रसिद्ध स्मारकों में से एक है। नारायण गुरु को श्री नारायण गुरु के नाम से भी जाना जाता है। उनका जन्म एझावा जाति के परिवार में हुआ था। केरल के जाति-ग्रस्त समाज में उन्हें बहुत अन्याय का सामना करना पड़ा। उन्होंने केरल में सुधार आंदोलन का नेतृत्व किया, जातिवाद को खारिज कर दिया और आध्यात्मिक स्वतंत्रता और सामाजिक समानता के नए मूल्यों को बढ़ावा दिया। नारायण गुरु ने मंदिरों और शैक्षणिक संस्थानों की स्थापना के माध्यम से अपने स्वयं के प्रयासों से दलितों के आध्यात्मिक और सामाजिक उत्थान की आवश्यकता पर जोर दिया। जन्म श्री नारायण गुरु का जन्म केरल के तिरुअनंतपुरम के उत्तर में 12 किलोमीटर दूर एक छोटे से गाँव में सन 1855 में हुआ था। स्वयं पिछड़ी जाति के होने के कारण वे इस समुदाय के दुःख दर्द को समझते थे। इनका घर का नाम ‘नानु’ था। ये बचपन से ही बहुत नटखट थे। उनके पिता मदन असन एक किसान थे, वे प्रसिद्ध आचार्य (गुरुकुल के) और संस्कृत के विद्वान थे, आयुर्वेद और ज्योतिष के ज्ञाता भी थे। श्री नारायण गुरु की मां एक सरल महिला थीं। अपने माता-पिता की चार संतानों में एकमात्र बालक थे नारायण अथवा ‘नानू’। शिक्षा नानू एक आम बालक की तरह पले-बढ़े। 5 वर्ष की आयु में उन्हें गांव के स्कूल में प्राथमिक शिक्षा के लिए भर्ती किया गया। वहां उन्होंने संस्कृत भी पढ़ी। प्राथमिक शिक्षा के बाद नानू ने घर पर रहकर खेती और घरेलू कामकाज में हाथ बंटाया। वे प्रतिदिन संस्कृत काव्य पाठ करते थे। वे मंदिर में पूजा और एकांत में ध्यान भी करते थे। 14 वर्ष की आयु में वे ‘नानू भक्त’ के नाम से प्रसिद्ध हो गए। 15 वर्ष की आयु में माता के देहान्त के बाद उनके मामा कृष्ण वेदयार (आयुर्वेदाचार्य) ने उनकी देखभाल की। कृष्ण वेदयार को अपने भांजे की अप्रतिम प्रतिभा का जल्दी ही पता लग गया। अत: नानू को उच्च शिक्षा के लिए करूनगपल्ली में एक योग्य अध्यापक रमण पिल्लै असन के पास भेज दिया। रमण पिल्लै एक सवर्ण हिन्दू थे। चूंकि नानू जन्म से अछूत थे, अत: उन्हें अपने गुरु के घर के बाहर रहकर अध्ययन करना पड़ा। नानू एक प्रतिभाशाली विद्यार्थी सिद्ध हुए और उन्होंने अपने सभी साथियों से आगे निकलकर शिक्षकों के सामने संस्कृत में अपनी विद्वता सिद्ध कर दी। संस्कृत में उच्च शिक्षा ग्रहण करने के पश्चात् 1881 में नानू अत्यधिक बीमार पड़ गये और उन्हें वापस घर लौटना पड़ा।[1] संघर्ष का दौर रोगमुक्त होने के बाद उन्होंने अपने पैतृक गांव में और आस-पास के क्षेत्रों में छोटे-छोटे विद्यालय खोलने का निर्णय लिया। यहीं से उन्होंने स्थानीय समाज के बालकों, विशेषकर पिछड़े वर्ग के बालकों में ज्ञान और शिक्षा का प्रसार आरम्भ किया। वस्तुत: यह दौर उनके जीवन में कड़े मानसिक संघर्ष का दौर रहा। एक ओर तो उन्हें परिवार के भरण-पोषण की चिंता करनी थी तो दूसरी ओर उनके भीतर आध्यात्मिक उन्नयन और यथार्थ के अनुभव को पाने की तीव्र उत्कंठा हिलोरें मार रही थी। उनके सब कामों पर उन्मुक्त आध्यात्मिक जीवन की तीव्र इच्छा की झलक दिखने लगी थी। अत: चिंतित रिश्तेदारों ने उनकी सोच में बदलाव की दृष्टि से उनके विवाह का निश्चय किया। 28 वर्ष की आयु में श्री नारायण गुरु की इच्छा के विरुद्ध जबर्दस्ती उनका विवाह कर दिया गया। नारायण गुरु भारत के महान संत एवं समाजसुधारक थे। कन्याकुमारी जिले में मारुतवन पहाड़ों की एक गुफा में उन्होंने तपस्या की थी। गौतम बुद्ध को गया में पीपल के पेड़ के नीचे बोधि की प्राप्ति हुई थी। नारायण गुरु को उस परम की प्राप्ति गुफा में हुई।जीवनी नारायण गुरु का जन्म दक्षिण केरल के एक साधारण परिवार में 26 अगस्त 1854 में हुआ था। भद्रा देवी के मंदिर के बगल में उनका घर था। एक धार्मिक माहौल उन्हें बचपन में ही मिल गया था। लेकिन एक संत ने उनके घर जन्म ले लिया है, इसका कोई अंदाज उनके माता-पिता को नहीं था। उन्हें नहीं पता था कि उनका बेटा एक दिन अलग तरह के मंदिरों को बनवाएगा। समाज को बदलने में भूमिका निभाएगा।उस परम तत्व को पाने के बाद नारायण गुरु अरुविप्पुरम आ गये थे। उस समय वहां घना जंगल था। वह कुछ दिनों वहीं जंगल में एकांतवास में रहे। एक दिन एक गढ़रिये ने उन्हें देखा। उसीने बाद में लोगों को नारायण गुरु के बारे में बताया। परमेश्वरन पिल्लै उसका नाम था। वही उनका पहला शिष्य भी बना। धीरे-धीरे नारायण गुरु सिद्ध पुरुष के रूप में प्रसिद्ध होने लगे। लोग उनसे आशीर्वादके लिए आने लगे। तभी गुरुजी को एक मंदिर बनाने का विचार आया। नारायण गुरु एक ऐसा मंदिर बनाना चाहते थे, जिसमें किसी किस्म का कोई भेदभाव न हो। न धर्म का, न जाति का और न ही आदमी और औरत का।दक्षिण केरल में नैयर नदी के किनारे एक जगह है अरुविप्पुरम। वह केरल का एक खास तीर्थ है। नारायण गुरु ने यहां एक मंदिर बनाया था। एक नजर में वह मंदिर और मंदिरों जैसा ही लगता है। लेकिन एक समय में उस मंदिर ने इतिहास रचा था। अरुविप्पुरम का मंदिर इस देश का शायद पहला मंदिर है, जहां बिना किसी जातिभेद के कोई भी पूजा कर सकता था। उस समय जाति के बंधनों में जकड़े समाज में हंगामा खड़ा हो गया था। वहां के ब्राह्माणों ने उसे महापाप करार दिया था। तब नारायण गुरु ने कहा था – ईश्वर न तो पुजारी है और न ही किसान। वह सबमें है। दरअसल वह एक ऐसे धर्म की खोज में थे, जहां आम से आम आदमी भी जुड़ाव महसूस कर सके। वह नीची जातियों और जाति से बाहर लोगों को स्वाभिमान से जीते देखना चाहते थे। उस समय केरल में लोग ढेरों देवी-देवताओं की पूजा करते थे। नीच और जाति बाहर लोगों के अपने-अपने आदिम देवता थे। ऊंची जाति के लाेेग उन्हें नफरत से देखते थे। उन्होंने ऐसे देवी-देवताओं की पूजा के लिए लोगों को निरुत्साहित किया। उसकी जगह नारायण गुरु ने कहा कि सभी मनुष्यों के लिए एक ही जाति, एक धर्म और एक ईश्वर होना चाहिए। उसी दौर में महात्मा समाज में दूसरे स्तर पर छुआछूत मिटाने की कोशिश कर रहे थे। वह एक बार नारायण गुरु से मिले भी थे। गुरुजी ने उन्हें आम जन की सेवा के लिए सराहा |नारायण गुरु मूर्तिपूजा के विरोधी थे। लेकिन वह ऐसे मंदिर बनाना चाहते थे, जहां कोई मूर्ति ही न हो। वह राजा राममोहन राय की तरह मूर्तिपूजा का विरोध नहीं कर रहे थे। वह तो अपने ईश्वर को आम आदमी से जोड़ना चाह रहे थे। आम आदमी को एक बिना भेदभाव का ईश्वर देना चाहते थे।


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