डा.बी.आर.अम्बेडकर “-व्यक्तित्व एवं कृतित्व-
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डॉ.अम्बेडकर ने कहा कि दुर्भाग्यवश यदि कोई कारिन्दा उनके पुस्तकालय को कब्जे में करने आए तो वह उसे प्रथम पुस्तक छूने से पहले ही जान से मार देंगे,पुस्तके ही उनका असली जीवन था,उन्हीं में उनके प्राण थे सिसरो कहता था कि वह पुस्तकों के बीच रहने के लिए सबका त्याग कर देंगे,गिब्बन ने कहा कि वह भारत के समस्त खजानों के बदले में भी पुस्तक -प्रेम का त्याग नहीं करेंगे,मेकॉले ने इच्छा व्यक्त की कि यदि वह राजा होने के बाद पुस्तकें नहीं पढ़ सका अथवा उसे नहीं पढ़ने दिया गया तो वह राजा बनना कतई पसन्द नहीं करेगा, डा.अम्बेडकर की भी अपनी प्रतिज्ञा थी,जब उन्हें नेत्र – रोग हुआ तब वह फूट- फूट कर रोये कि कहीं उनका पुस्तक पढ़ना बन्द न हो जाये, उन्होने सोचा कि यदि उनके नेत्रों की रोशनी चली गई तो वह अपने जीवन का अन्त कर लेंगे,ऐसा था उनका पुस्तक शौक,पुस्तके ही उनके साथी और मित्र थे,पुस्तकों के अभाव में उनका समस्त जीवन शून्य था, डॉ.बाबासाहब अम्बेडकर को केवल पुस्तकें पढ़ने का ही शौक नहीं था,बल्कि पुस्तकें लिखना भी उनके व्यक्तित्व का अंग था,जब कभी भी वह नई पुस्तक लिखते थे ,उनको बहुत खुशी होती थी और जब वह अपने विचारों को पुस्तक के रूप में प्रकाशित देखते थे, तब उन्हें असीम आनन्द की अनुभूति होती थी,उनके मस्तिष्क से निकली एक पुस्तक की उनकी खुशी कहीं चार बच्चों के जन्म से बढ़ कर होती थी,जैफरसन ने अपने पुस्तकालय को अमेरिकी सरकार को बेच दिया था ताकि वह अपने ऋणों को चुका दे, डॉ . अम्बेडकर ने अपने

डॉ.बाबासाहेब का जीवन रूढ़िगत संस्कारों से मुक्त था,वह अपनी रुचि ,बुद्धि एवं आवरण के अनुसार रूढ़िबद्ध संस्कारों का पूर्णतया खण्डन करते थे तथा उस खोखली ब्राह्मणी आदर्श नीति को नष्ट करना चाहते थे जिसके कारण व्यक्ति अपनी इच्छानुसार स्वतन्त्र न रह कर , अपनी रुचि अनुसार काम न कर , समाज की परम्पराओं और संस्कारों के इशारों पर कठपुतली मात्र बन कर नाचता रहे,डॉ. साहेब की मान्यता थी कि यदि मनुष्य को अपनी रुचि अनुसार धन्धा या रोजगार न मिले तो आर्थिक व्यवस्था खुशहाल नहीं हो सकती,मनुष्य को रूढ़ि, परम्परा ,अन्धविश्वास ,अज्ञान एवं अशिक्षा के बन्धन से मुक्त किया जाना चाहिए,उम्र के मोड़ के साथ – साथ डॉ.बाबा साहेब की रुचियों ,आचार -विचारों तथा अभ्यासों में थोड़ा -सा अन्तर अवश्य आया ,पर परिस्थितियों के थपेड़े सहन करके भी दलितों की सेवा में लीन रहते हुए भी ,वह अपने रुचि अनुसार जिये, बनावटी रहन – सहन तथा वेशभूषा में उनका विश्वास कतई नहीं था। -“डा.बी.आर.अम्बेडकर”
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