agra news : आगरा 01 जनवरी भीमा कोरेगाँव शौर्य विजय दिवस सभी को भीमा कोरेगाँव शौर्य विजय दिवस 01 जनवरी की बधाई
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आगरा 01 जनवरी भीमा कोरेगाँव शौर्य विजय दिवस सभी को भीमा कोरेगाँव शौर्य विजय दिवस 01 जनवरी की बधाई
01 जनवरी भीमा कोरेगाँव शौर्य विजय दिवस लेख-कँवल विद्रोही वैसे तो अछूतों के साथ हजारों सालों से क्रूरता और अमानवीयता पूरे भारत वर्ष में चली आ रही थी किन्तु पेशवाई राज्य अछूतो के लिए सबसे क्रूरतम, अमानवीय और पीड़ादायक शासन रहा था। इस राज्य में अछूतों को थुकने के लिए गले में हान्डी और पैरों के निशान मिटाने के लिए कमर में झाड़ू बान्धनी पड़ती थी। अछूत पुरुष लंगोटी के अलावा कोई दूसरा वस्त्र नहीं पहन सकता था और अछूतों की महिलाएँ कमर के ऊपर कोई भी वस्त्र नहीं पहन सकती थी और ना ही कोई आभूषण पहन सकती थी कमर के नीचे भी मात्र जांघों तक ही कपड़े पहन सकती थी। कमर से ऊपर कपड़े पहनने पर उनके साथ अमानवीय अत्याचार किये जाते। उनके साथ बीच सड़क पर सामुहिक बलात्कार किया जाता और कई बार स्तन ढकने की सजा के रूप में उनके स्तन काट दिये जाते। शहर के किसी भी स्थान पर या कहीं भी या सड़क पर उन महिलाओं के साथ किसी भी व्यक्ति का अश्लील हरकत करना, कहीं भी दुराचार कर लेना, कहीं भी खींच कर ले जा लेना, उनके परिवार के सामने ही उसके साथ दुराचार सहित कुछ भी कर देना, विरोध करने पर उसकी हत्या
बहुजन इंडिया 24 न्यूज़ व बहुजन प्रेरणा दैनिक समाचार पत्र (सम्पादक मुकेश भारती- सम्पर्क सूत्र 9336114041 )
आगरा : ( प्रिंस कुमार – ब्यूरो रिपोर्ट ) दिनांक-3 जनवरी – 2021 सोमवार ।
कर देना, अछुत की हत्या के बदले में कोई भी सजा न होना यह सब आम बात थी। अछुत दोपहर के पहले या बाद में घर से नहीं निकल सकता था, यदि निकला तो कमर में झाड़ू और गले में हान्डी बान्धकर निकलना पड़ता था। अछूतों के लिए ये पीड़ा, ये क्रूरता असहनीय थी। इस कारण पेशवाई राज्य के सभी अछूतो में अत्यधिक रोष था। सारे महार अछूत अवसर की तलाश में थे, वे सभी सिद्धनाक महार की बात मानते थे। सिद्धनाक जी गुण्डे नहीं थे। वह क्रान्तिकारी जैसे बहुत वीर पुरुष थे। लट्ठ चलाने में वह उस्ताद थे। वे राज्य की क्रूरता के आगे मजबूर तो थे लेकिन हतोत्साहित नहीं थे। वे अवसर की तलाश में रहते थे। वे कई बार अत्याचारियों को पीट चुके थे और पीटने का दण्ड भी भोग चुके थे। इनकी वीरता की जहाँ-तहाँ चर्चा थी। सिद्धनाक महार की वीरता की चर्चा जब अंग्रेजों ने सुनी तो अंग्रेजों ने उन्हें अपनी सेना में भर्ती होने का प्रस्ताव दिया। उस समय भारत के सभी राज्यों में सबसे बड़ी सेना, पेशवाई सेना थी। जिसमें 5000 घुड़सवार और 23000 पैदल सैनिक थे। इस विशाल सेना के आगे किसी दूसरे राजा की सेना टिक ही नहीं पाती थी। पेशवाई सेना, उस जमाने में सबसे ताकतवर सेना थी। इसलिए पेशवाई राज में अंग्रेज हाथ डालने से घबरा रहे थे। बड़ी सेना के अधिपति होने के घमण्ड ने पेशवाओं को अत्यधिक क्रूर बना दिया था। एन्टिनाओ के नेतृत्व में सत्ता चलाने के कारण वे अछूतों और आदिवासियों पर बहुत ज्यादा अत्याचार करते थे। अत्याचार शुद्रों अर्थात ओबीसी पर भी होता था किन्तु अछूतों की तुलना में कम था। सिद्धनाक महार ने अंग्रेजों के सामने अपने 500 शार्गिद महारो को भी सेना में भर्ती लेने हेतु प्रस्ताव रखा, जिसे अंग्रेजों ने मान लिया। चुंकि महारों को तो पेशवाओं से बदला लेना था इसलिए वे अंग्रेजी सेना शामिल हो गये। 30 दिसम्बर 1817 को आठ अंग्रेज घुड़सवार अधिकारियों के साथ सेनापति सिद्धनाथ महार की 500 महारो की बटालियन पूणे के कोरेगाँव की ओर भीमा नदी के किनारे किनारे बढ़ रही थी। चुंकि अंग्रेज अछूतों, शुद्रों और आदिवासियों के पक्ष में कानून बनाने लगे थे और इन पर हो रही सामाजिक ज्यादतियों के विरुद्ध रोज नए नियम बनाते जा रहे थे। ये अछूतों के पक्ष में बनाए गए सारे नियम एन्टीनाओ के विरुद्ध होते थे। इसलिए भारत का एन्टीना वर्ग अंग्रेजों को देश से भगाने में लगा हुआ था इसलिए इस वर्ग ने पेशवाओं को अंग्रेजो के खिलाफ भड़का रखा था। इस कारण पेशवा अंग्रेजों को सबक सिखाना चाहते थे। जब उन्हें पता चला अंग्रेजों ने अछूत महारो को अपनी सेना में भर्ती कर लिया है, इस बात से पेशवा बहुत ज्यादा क्रोधित हो गये और वे अंग्रेजों सहित सारे महारों को मारने की ताक में रहने लगे। जब उनके मुखबिर ने यह खबर दी कि आठ अंग्रेज अधिकारी अपने 500 महारो की सेना के साथ कोरेगाँव की ओर भीमा नदी के किनारे किनारे जा रहे हैं। तो उन्होंने तत्काल नदी के पास ही उनको घेरने का प्लान बनाया और अपनी सारी सेना 500 घुड़सवार और 23000 पैदल सैनिकों को उनको घेर कर मारने भेज दिया। जब 30 दिसम्बर के अन्धेरे में भोर के समय पेशवाई सेना ने इनको चारों ओर से घेर लिया तो अंग्रेज अधिकारी डर गये और महार सेना का वापस भागने का आदेश दिया। तब सिद्धनाथ ने अंग्रेज अधिकारी से कहा – साहब! कुदरत ने आज हमें पेशवाओ से बदला लेने का मौका दिया है इसलिए हम आपका यह आदेश नहीं मानेंगे क्योंकि हम इन पेशवाओं से डर कर भागने के लिए आपकी सेना में भर्ती नहीं हुए हैं। हम भले ही मर जायेंगे लेकिन इन कमीनों से लड़ेंगे जरूर। इनकी बात सुनकर आठों अंग्रेज अधिकारी घबरा गए और डर के मारे अपने घोड़े वहीं छोड़कर एक खाई में जाकर छुप गए। इस महार सेना को पेशवाओं ने चारो ओर से घेर लिया था तब 31 दिसम्बर 2017 की सुबह से पेशवाई सेना के साथ 500 महारो का युद्ध आरम्भ हुआ। बिना खाए-पिए, भूखे-प्यासे ये 500 पैदल महार सैनिक 31 दिसम्बर का पूरा दिन, 31 दिसम्बर की पूरी रात और 1 जनवरी 1818 का पूरा ये पेशवाओं के साथ लड़ते रहे। उन्होंने पूरे 28000 पेशवाओं को बुरी तरह काट डाला और लाशों के ढेर से भीमा नदी को भर दिया। भीमा नदी में खून ही खून बहने लगा और भीमा नदी पूरी लाल हो गई। भले ही इस युद्ध में वो लोग भी मारे गए, लेकिन बिना खाए-पिए 36 घण्टे लगातार भूखे-प्यासे लड़ते रहे। इतनी बड़ी वीरता! इतना बड़ा साहस! इतना बड़ा बलिदान! केवल अपनी आजादी के लिए… अपनी कौम की आजादी के लिए…. अपने समाज की आजादी के लिए..। कोई भला इतनी बड़ी कुर्बानी कैसे दे सकता है? किन्तु इन्होंने दिया। अपना सर्वश्व त्याग कर अपनी अछूत बहनो की इज्ज़त का बदले में … पेशवाओं के शासन को ही खत्म कर डाला। इस वीरता के लिए अंग्रेजों ने भीमा नदी के उस तट पर एक विजय स्तम्भ बनवाकर उन सभी 500 महार सैनिको के नाम लिखकर 01 जनवरी 1819 को उन्हें सैलुट किया… उन्हें सलामी दी और महारो की वीरता को सम्मान देते हुए अंग्रेजी सरकार ने महार बटालियन का निर्माण किया। तबसे यह परम्परा चली आ रही है। इस परम्परा का निर्वहन करते हुए बाबासाहब भी 01 जनवरी को भीमा कोरेगाँव जाकर इस स्तम्भ के समक्ष अपने सैनिकों को सलूट करते थे। सिद्धनाक जिस जज्बे से अपनी सेना के साथ लड़े, यह जज्बा ऐसा जज्बा था जिसने हमें यह सिखाया कि हम हिजड़ों की नहीं, वीरों की कौम है।…. महार हिजड़े नहीं हैं।.. महार वह जाति है जिसने पूरे देश के इतिहास को बदल डाला और भारत का संविधान लिख डाला। आपको याद होगा कि जब देश आजाद हुआ था और 1948 को कश्मीर में पाकिस्तानी कबालियों ने हमला किया था। तब उस समय भी वहाँ पर महार बटालियन ने जाकर पहले पाकिस्तानी हमले को नाकामयाब कर डाला था और पाकिस्तानियों को दौड़ा दौड़ा कर मारा था। आपको पता है या नहीं, मैं नहीं जानता.. किन्तु आज से 30-40 साल पहले तक हर गाँव में महार लठैत हुआ करते थे, जो बहुत अच्छी तरह लट्ठ चलाते थे और इनकी इसी महारथ को पहचान कर 1924 में आर एस एस की स्थापना के बाद उसकी तोड़ के लिए बाबा साहब ने 1927 में समता सैनिक दल का गठन किया, जिसमें वे सभी लट्ठैत महार होते थे जो किसी भी परिस्थिति में हमेशा कट-मरने को तैयार रहते थे और इसी के दम पर आर एस एस के गढ़ नागपुर में बाबा साहब ने 14 अक्टूबर 1956 को बौद्ध धर्म की दीक्षा ली। ये वो समता सैनिक दल महार सैनिक थे जिन्होंने धम्म-दीक्षा के इतने बड़े कार्यक्रम को सम्पन्न करवाया। हम उस वीर कौम के लोग है। से 30-40 साल पहले तक एक गाँव में एक महार अवश्य रहता था जो पूरे गाँव को दबाकर रखता था क्योंकि वह लकड़ी-पट्टे का उस्ताद हुआ करता था और अपने समाज की रक्षा भी वही करता था। जब तक वो गाँव में रहता था, सवर्ण, अछूत बस्तियों में घुसने की हिम्मत नहीं करता था। इन महारों की इसी वीरता के कारण अंग्रेजों ने कोटवार प्रथा चलाई और महार को गाँव का रक्षक बनाया और उसे कोटवार का नाम दिया कोटवार यानि गाँव का रक्षक या रखवाला और उसे हथियार के रूप में बरछी दी, जो भाले का छोटा रूप है। सिक्खों को छोड़कर सभी भारतीयों को हथियार रखने की पाबन्दी है। कहने का मतलब है कि महार अपनी दबंगई और अपनी वीरता के बल पर कोटवार बने। और अकेले महार ही हैं जिन्हें बरछी रखने का अधिकार दिया गया था। के कोटवार भले ही, नाजुक जिवड़े, दुबले-पतले, मेना ची बाहुली हो, लेकिन उस जमाने की कोटवार लट्ठेत हुआ करते थे। ये है महार अछूतों की गौरव गाथा।भले ही हजारों साल का अछूतों के उत्पीड़न और अपमान का लम्बा इतिहास रहा है, भले ही ईसा के 2885 वर्ष पूर्व भारत आए लोगों ने इस देश के मूलनिवासियों को असुर, राक्षस, दैत्य, दानव, दस्यु आदि नाम देकर अपमानित किया हो, भले ही अनेक षड्यन्त्र करके भारतीय सभ्यता को तहस-नहस करके इनकी सम्पत्ति हड़प कर इन्हें मानव अधिकारों से वंचित करके इन्हें सूद्र, अतिसूद्र, अछूत बनाकर इन पर अनेक प्रतिबन्ध लगाये हो, भले ही इन्हें सामाजिक, शैक्षणिक और आर्थिक अधिकारों से भी वंचित किया हो और इन्हें जानवरों से भी बद्तर जीवन जीने पर मजबूर किया हो, भले ही भारत के बाप गान्धीजी ने अछूतों को हरिजन कहकर सार्वजनिक गाली दी हो किन्तु इन सबके बावजूद ये भी सत्य है कि महार अछूतों को जब-जब भी मौका मिला, तब-तब उन्होंने एक नया इतिहास बना डाला। इतने भयंकर सामाजिक बहिष्कार सहकर भी महारो ने अपने भीतर कायरता नहीं आने दी और लगातार सामाजिक विषमता से लड़ते रहे हैं, लड़ रहे हैं और जब तक जीवित हैं लड़ते रहेंगे। रही बात बाबासाहब की बदौलत छोटी-बड़ी नौकरियों में पहुँचे महार अधिकारियों/कर्मचारियों की, तो उन्होंने उस समय भी बाबा साहब को धोखा दिया था, बाबा साहब से छल किया था और आज भी उनके मिशन से छल कर रहे हैं। खाते बाबा साहब की हैं और गाते एन्टिनाओ की है। खैर! यह उनकी अपनी कायरता है.. उनकी अपनी बुजदिली है। सभी ऐसे नहीं है। लेकिन 90% हैं। इनके लिए हर गाली कम है। खैर…छोड़ो… क्यों मन खट्टा करें? सन 1818 के पहले भी अछूत सन्त, अछूत वीर बहुत हुए। अछूतों में चमार आल्हा-ऊदल जैसे वीर भी हुए हैं जिन्हें इतिहास ने स्थान नहीं दिया, किन्तु भीमा-कोरेगाँव युद्ध … अछूतों के लिये.., खासकर महार अछूतों के लिए … ऐतिहासिक परिवर्तन बिन्दु था क्योंकि इस घटना ने महारो की वीरता को उजागर कर दिया और तत्कालीन अंग्रेज सरकार को यह सोचने पर मजबूर कर दिया कि किसी समुदाय के साथ इतनी भयंकर प्रताड़ना भी हो सकती है। इस घटना के बाद शासन ने इस समुदाय के विषय में सोचने का नजरिया बदला। जिसके कारण महात्मा ज्योति बा फूले ने पहले पढ़े-लिखे शुद्र अर्थात् पहले पढ़े-लिखे ओबीसी होने का गौरव हासिल किया और सत्य शोधक समाज की स्थापना कर समाज को जागृत कर क्रुरता और अत्याचार से लड़ने के लिए तैयार किया। जिसके सदस्य बाबासाहब के पिता रामजी सकपाल जी भी थे। अपने पिता के कारण ही बाबासाहब शिक्षित होकर आधुनिक बुद्ध बने और करोड़ों अछूतों सहित भारत का उद्धार किया। इसलिए बालाघाट के भन्ते धम्मशिखर जी कहते है कि हम पहले के अछूत महार और आज के महार बौद्धों को अपना ये गौरवशाली इतिहास समझना जरूरी है क्योंकि इतिहास ही भविष्य का निर्माण करता है। इतिहास जानना इसलिए जरूरी है क्योंकि यदि भीमा कोरेगाँव का युद्ध न हुआ होता, तो आज हमारा उद्धार न होता। न तो ज्योतिबा फुले, महात्मा ज्योतिबा फुले बनते और न ही बाबासाहब के पिता रामजी सकपाल उनके आन्दोलन के सम्पर्क में आते। और यदि वे उस आन्दोलन के सम्पर्क में नहीं आते तो न उनका नजरिया बदलता और उनका नजरिया नहीं बदलता तो बाबा साहब का लालन -पालन उस आन्दोलन के अनुसार न होता और न बाबा साहब की शिक्षा-दीक्षा उस आन्दोलन के अनुरूप होती। और यदि बाबासाहब की शिक्षा दीक्षा उस आन्दोलन के अनुरूप न होती दोस्तों, तो बाबा साहब में वो जज्बा पैदा नहीं होता। और जब बाबासाहब में वो जज्बा नहीं होता तो बाबासाहब, बाबासाहब नहीं बनते और बाबासाहब, बाबासाहब नहीं बनते तो हम सब महार तो होते, अछूत भी होते, जानवर भी ढोते, मरे ढोर का मांस भी खाते, गले में हाण्डी भी लटकाते, कमर में झाड़ू भी बान्धते, हम अपनी बहन बेटियों की इज्ज़त लुटती भी देखते, उनके स्तन कटते भी देखते, हम गुलाम भी होते, ये सब कुछ तो होते लेकिन बौद्ध और शूरवीर कभी नहीं होते। इसके अलावा, हम सरकारी नौकर तो कभी न होते और न ही सभी के साथ बस्तियों और शहरों में समानता का जीवन जीते। न बड़ी बड़ी बिल्डिंगें बनाकर अपने गरीब भाईयो को तुच्छ नजर से देखते। है कि नई सही बात। होता न ऐसा? खैर.. हमारी कौम को इस वीरता का, इस भीमा कोरेगाँव के युद्ध का इतिहास जानना बहुत ही जरूरी है। क्योंकि इस इतिहास को नहीं जानने वाले आज भी कायर है, बुजदिल हैं, भीरू हैं, डरपोक हैं, लालची है, पाखण्डी हैं, पत्थरों के गुलाम हैं, दोगले हैं, उन्हें अपने लोगों के साथ रहने, उठने, बैठने से डर लगता है। और जो लोग ये इतिहास जान गए वह बौद्ध हो गए, वीर हो गए और बाबा साहब के सिपाही हो गये। अरे! पेट तो कुत्ता भी भर लेता है। पर अपनी कौम पर नाज करना और कौम की मर्दानगी को कायम रखना शेरों का हुनर है। गीदड़ तो आज भी शेर का जूठन ही खाते हैं। इसके साथ सभी को सादर जयभीम सभी को भीमा कोरेगाँव शौर्य विजय दिवस 01 जनवरी की बधाई… इस युद्ध के शहीद सभी 500 महार सैनिकों को कोटि कोटि नमन कँवल विद्रोही।
वो जान हथेली पर रखकर मरने मारने पर उतारू थे, अपनी जान से ज्यादा उन्हें आने वाली पीढ़ी की चिंता थी ! वो नही चाहते थे आने वाली पीढ़ी जाति का दंश झेल कर ब्राह्मण पेशवायों की ग़ुलामी करे, जो वो लोग उस वक़्त तक कर रहे थे ! 31 दिसंबर 1817 को शिरूर के ब्रिटिश कैंप से चलते हुए बिना कुछ खाए पिए 43 किलोमीटर निरंतर पैदल चलकर वो 500 महार योद्धा भीमा नदी के पास कोरेगांव के मैदान में जंग लड़ने के लिए पहुंचे ! उन्हें जंग के मैदान में पहुंचने तक तारीख और साल भी बदल चुका था, वो ऐतिहासिक दिन 1 जनवरी थी ! जी हां 1 जनवरी 1818 ब्रिटिश कमांडर एफ स्टॉनटन के नेतृत्व में 500 महार योद्धा इस तारीख को ऐतिहासिक बनाने के लिए तैयार थे ! उनके सामने ब्राह्मण पेशवा की सबसे मजबूत सेना थी, 20,000 हज़ार घोड्सवार सैनिक और 8,000 पैदल सैनिक ! उनके आँखों में ब्राह्मणवाद से आज़ादी का सपना था, इतनी बड़ी सेना से वो डरे नही, वीरता और सहस का परिचय देते हुए वो लोग 12 घंटों तक लड़े ! 500 अनार्य महार योद्धायों ने अपने समर्पित सहस और वीरता से 1 जनवरी की तारीख को ऐतिहासिक बना दिया ! 500 महार सैनिकों की वीरता के आगे ब्राह्मण पेशवा की सेना हार कर भाग खड़ी हुई और ब्राह्मण पेशवा साम्राज्य का अंत हुआ ! 18 दसक से लगातर चले आ रहे सवर्ण राज के समाप्ती की पहली नींव पड़ी थी कोरेगांव युद्ध में ! वो सही मायने में नायक थे वो 500 थे लेकिन 50,000 के बराबर थे ! अपना नव वर्ष उन्हें याद करके मनाएं !
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