त्रिगुणपावनी बुद्ध पूर्णिमा पर आलेख ‘कोरोना-मुक्ति में बुद्ध दर्शन का भूमिका’
1 min read
😊 Please Share This News 😊
|
त्रिगुणपावनी बुद्ध पूर्णिमा पर आलेख ‘कोरोना-मुक्ति में बुद्ध दर्शन का भूमिका’-
गोंडा (बहुजन इंडिया 24 न्यूज़ व बहुजन प्रेरणा दैनिक समाचार पत्र – क्राइम रिपोर्टर राम बहादुर मौर्य ।सम्पर्क 9616791345
संपादक मुकेश भारती -9161507983
सिद्धार्थ गौतम के शोध का मुख्य लक्ष्य या विषय ही था ‘प्रतीत्य समुत्प’ ।इसी शोध के फलस्वरूप उन्हें तथागत ‘बुद्ध’ की उपाधि प्राप्त हुयी थी ।जिसके लिए उन्होंने 6 वर्ष लगातार अनुसंधान,विश्लेषण और प्रयोग किया था। उक्त विषय का अर्थ है कि प्रत्येक कार्य का कारण होता है और कोई भी कार्य अकारण नहीं होता है। उनके शोध से केवल मानव जगत ही नहीं बल्कि सम्पूर्ण प्राणी जगत लाभान्वित हुआ है। काआ
कार्य-कारण नियम का अर्थ है- इसके होने से यह होता है। बुद्धत्व प्राप्ति के बाद तथागत ने पाया कि दुखों का कारण अविद्या या अज्ञानता है। जिससे संशय संस्कार उत्पन्न होता है और संस्कार विज्ञान से यानि नाम-रूप होने से षडायतन (पाॅच ज्ञानेन्द्रियों-ऑख,नाक,कान,जीभ,त्वचा एवं मन)होने से विज्ञान उत्पन्न होता है। स्पर्श होने से वेदना पैदा होती है और वेदना तीन प्रकार से होती है- सुख वेदना,दुख वेदना और सुख-दुख वेदना ।वेदना से तृष्णा यानि अधिक पाने की लालशा ही तृष्णा है। तृष्णा से उपादान और उपादान से भव अर्थात् पुनः जन्म लेने की अभिलाषा उत्पन्न होती है। इसके बाद जन्म होने से बुढ़ापा,मरना,शोक,रोना-पीटना,जरा-मरण अनुगमन करता है इसलिए प्रतीत्य-समुत्पाद की यह दिशा कारण से कार्य फल की ओर ले जाती है। इसकी दूसरी गति प्रतिगामी है अर्थात् कार्यफल से कारण की ओर ले जाने वाली है ।इस समुत्पाद अर्थात् जन्म-मरण के कारण-फल सिद्धांत की बारह कड़ियाँ-अविद्या,संस्कार,विज्ञान,नाम-रूप,षडायतन, स्पर्श, वेदना, तृष्णा, उपादान, भव, जाति-जन्म और जन्म-मरण।
तथागत बुद्ध ने दुख से पीड़ित संसार के लिए एक निदान यानि औषधि खोज निकाली। प्रत्येक मानव को दो अतियों से बचना चाहिए। व्रत-उपवास से शरीर को न कष्ट दें और न ही भोग-विलास से शरीर को नष्ट करें बल्कि दो अतियों के बीच का रास्ता मध्यम मार्ग है। सम्पूर्ण संसार में प्रत्येक प्राणी किसी न किसी कारण से दुखी है । यानि विश्व में दुख है तो दुख का कारण है और कारण का निवारण है और निवारण के उपाय हैं। स्वस्थ व्यक्ति भी दुखी है किन्तु जब दुख अधिक हो जाता है तो व्यक्ति व्याकुल हो जाता है घबड़ा जाता है डर जाता है और डर से बड़ा कोई वायरस नहीं है और हिम्मत से बड़ी कोई वैक्सीन नहीं है। ज्ञान-विज्ञान के अनुसार जीवन जीने वाला स्वस्थ हो जाता है और ढोंग-पाखंड और अंधविश्वास के अनुसार जीवन जीने वाला मर जाता है। जो डर गया वह मर गया और डर के आगे जीत है।
दुखमुक्त करने के आठ मार्ग हैं-1.सम्यक् दृष्टि,2.सम्यक् संकल्प3-.सम्यक् वाणी,4.सम्यक् कर्मान्त,5.सम्यक् आजीविका,6.सम्यक् व्यायाम,7.सम्यक् स्मृति एवं 8.सम्यक् समाधि। निर्मल ज्ञान के साथ सील या सदाचार या संयम से व्यक्ति चरित्रवान बन जाता है। कुशल चित्त की एकाग्रता को लौकिक समाधि कहते हैं। जिसके अंतर्गत विपश्यना यानि विशेष दर्शन या विशिष्ट ज्ञान आता है। अपने सांसों के आवागमन पर ध्यान एकाग्र करना,उनके आने जाने का बोध करना और उनपर नियंत्रण करना ।इस साधना का मुख्य लक्षण चित्त की शुद्धता है और यह बुद्ध धम्म की आधार शिला है। तथागत बुद्ध की सोच थी कि मरना सबको है किन्तु मरना कोई नहीं चाहता। प्रत्येक व्यक्ति को मरने से एक दिन पूर्व अच्छा कार्य करना चाहिए। कब मरना है यह किसी को नहीं पता है इसलिए प्रतिदिन अच्छा कार्य करना चाहिए। ईच्छा या तृष्णा के रहते हुए प्राण चले जांय तो मृत्यु होती है और प्राण के रहते हुए इच्छा या तृष्णा चली जाय तो निर्वाण होता है। भगवान के बारे में तथागत ने कहा था कि जब धरती पर कोई ऐसा समय आएगा जब इंसान स्वयं को बचाने में लग जाए तब समझ जाना कोई भगवान नहीं है। यह महामारी भी निश्चित ही खत्म होगी क्योंकि संसार में सब कुछ अनित्य है। सभी संस्कार अनित्य हैं। पदार्थ का गुण धर्म और स्वभाव है उत्पन्न होना और नष्ट होना,यह प्रकृति का नियम है। सुख मानव के अंहकार की परीक्षा लेता है और दुख मानव के धैर्य-संकल्प की परीक्षा लेता है। जो इन दोनों परीक्षाओं में सफल हो जाता है वही जीवन में सफल हो जाता है। अतीत में न ध्यान केंद्रित करना चाहिए और न ही भविष्य के लिए सपना देखना चाहिए बल्कि अपने मन को वर्तमान में केन्द्रित करना चाहिए।
समय,सत्ता,सम्पत्ति और शरीर चाहे साथ दे या न दे किन्तु स्वभाव,समझदारी और सच्चे सम्बन्ध सदैव साथ देते हैं। दुख भोगने वाला आगे चलकर सुखी हो जाता है लेकिन दुख देने वाला कभी सुखी नहीं हो सकता है। अपनी ऊर्जा खुश रहने में ही खर्च करिये क्योंकि खुशी से ‘इम्यूनिटी’बढ़ती है। प्रसन्नता वह औषधि है जो दुनिया के किसी बाजार में नहीं मिलती है यह सिर्फ अपने अंदर ही मिलती है। ‘जिंदगी रूकी पड़ी है। बहुत मुश्किल की यह घड़ी है। सांसों की कीमत पूछो उस इंसान से। जिसकी सांसें उखड़ी पड़ी है। सोचा न था एक दिन ऐसा भी आयेगा। एक सांस लेने के लिए। पैसा भी काम न आएगा। आहार-विहार का असंतुलन ही हमारी बीमारी का कारण है। विनय यानि अनुशासन युक्त जीवन के अभाव का प्रभाव है। संतुलित भोजन और आवश्यक विश्राम से मानव कोसों दूर चला गया है। भागमभाग की जिन्दगी में मानव रोबोट मशीन बन कर काम कर रहा है। ऐसे में सुख-चैन का छिनना स्वाभाविक है। चिंतन के बजाय चिंता ज्यादा करता है और इसीलिए डरा हुआ,भय युक्त,शोक युक्त,दुख युक्त जीवन बना हुआ है। कोई परिवार से दूर तो कोई समाज से दूर है तो कोई देश से दूर रहकर दुख मुक्त,भय मुक्त और शोक मुक्त होना चाहता है। सुख के पीछे दौड़ोगे तो सुख नहीं मिलेगा बल्कि दुख के पीछे दौड़ो तो शर्तिया सुख मिलेखा।
ओशो के अनुसार :-‘आपके मन में किसी बीमारी का थोड़ा सा भी डर है, तो आपका दिमाग आपके शरीर में उस बीमारी का लक्षण पैदा कर देगा। क्योंकि हमारा दिमाग इतना शक्तिशाली है कि वह किसी बीमारी का इलाज भी कर सकता है और बीमारी पैदा भी कर सकता है।’आपके दिमाग में कोरोना वायरस का कोई भय भूत नहीं रहना चाहिए अन्यथा अच्छा खासा स्वस्थ व्यक्ति भी बीमार हो जायेगा। एक पुराना मनोवैज्ञानिक नुस्खा है कि किसी भी स्वस्थ व्यक्ति को 100 लोग केवल कमजोर और बीमार कहने लगें तो धीरे धीरे वह सचमुच अपने आपको कमजोर और बीमार समझने लगेगा। जैसे यह भी सत्य है कि एक झूठ को सौ बार बोला जाय तो वह सच लगने लगता है। यद्यपि को-रोना की दूसरी लहर के कहर से बाहर निकलने का प्रयास जारी है इसके बावजूद भी इस बीमारी पर कब नियंत्रण पायेंगे,अभी कहना कठिन है। रोज़ाना देखने(टीवी),सुनने (रेडियो) और पढ़ने (समाचार पत्र)से केवल मन में कोरोना का भूत दिखने लगता है। इसलिए बहुत से लोगों ने टीवी,रेडियो और समाचार पत्र का उपयोग बंद कर दिया है लेकिन दूसरा पहलू जो बंद करना सम्भव नहीं हो पा रहा है वह मोबाइल पर आवश्यकतानुसार कुशल क्षेम जानना। क्योंकि मोबाइल आन होते ही कोरोना का टीका सुरक्षित है एवं अन्य सूचनाएं जो प्रायः फालतू लगने लगी हैं विवश होकर सुनना पड़ता है और नाजायज समय बर्बाद करना पड़ता है। उल्लेखनीय है कि मानव प्रतिष्ठा हमारे संविधान का एक बहुमूल्य आदर्श है और यह आदर्श लोगों के जीवन को संवारता है।
उच्चतम न्यायालय ने भी मेनका गाँधी बनाम भारत संघ के मामले में अनुच्छेद 21 को एक नया आयाम दिया था और न्यायालय ने कहा था कि प्राण का अधिकार केवल भौतिक अस्तित्व तक ही सीमित नहीं है बल्कि इसमें मानव गरिमा को बनाये रखते हुए जीने का अधिकार भी शामिल है लेकिन आज वही जीने का अधिकार हाशिए पर पहुँच गया है अभी बहुत कुछ किये जाने की आवश्यकता है। अनुच्छेद 21के तहत सभी कोरोना पीड़ितों का सरकारी और निजी चिकित्सालयों में सम्पूर्ण इलाज मुफ्त किया जाना चाहिए। उल्लेखनीय तथ्य यह भी है कि कोरोना की समस्या व्यक्ति,परिवार,समाज की नहीं बल्कि राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय गम्भीर समस्या या महामारी है। जो सुनामी का रूप धारण किये हुए है। यह महामारी कहीं न कहीं हमारी अव्यवस्था की ढोल की पोल खोल रहा है। शिक्षा,व्यवसाय एवं गांव से लेकर शहर तक बेरोजगारी और आर्थिक ढांचा चरमरा गया है। एक तरफ रोजगार खत्म और दूसरे तरफ कोरोना का मंहगा इलाज दोहरी मार झेलनी पड़ रही है। कम से कम दिहाड़ी मजदूरों,पटरी दूकानदारों,चाय,कपड़ा धुलाई एवं प्रेस करने वाले एवं लांड्री,सैलून,लोहा,लकड़ी,खोमचे वाले,मिट्टी खिलौने,सिलाई कढ़ाई दूकानदार,ब्यूटी पार्लर साइकिल,मोटरसाइकिल मिस्त्री,रेडीमेड व्यवसायी,स्टेशनरी,जनरल स्टोर,प्रिटिंग प्रेस आदि यत्र-तत्र-सर्वत्र खस्ताहाल हैं जिन्हें परिवार के भरण-पोषण हेतु कम से कम 5हजार रूपये प्रतिमाह मिलने पर उन्हें राहत मिल सकेगी। इससे काफी पहले 1896-1897 में पूना,मुम्बई,सतारा में प्लेग की महामारी फैली। वर्ष 1899 में बंगाल में लोगों को घरों में कैद होना पड़ा था।
बोधिसत्व डाॅ.अम्बेडकर के पिता रामजी मालोजी सकपाल ने लोगों की प्राण रक्षा में महती भूमिका निभाई और प्रथम भारतीय शिक्षिका राष्ट्र माता सावित्रीबाई फूले ने सत्य शोधक संस्था के सहयोग से लोगों की जान बचाने में प्राणों की बाजी लगाकर सहयोग किया और चंदे के पैसे से चिकित्सालय की स्थापना करायी और अपने दत्तक पुत्र डा.यशवंतराव को चिकित्सक बनाया और सैकड़ों बेसहारा लोगों की जान बचाने का कार्य किया। लोगों की जान बचाने में ही स्वयं प्लेग की शिकार हो गयीं और 10 मार्च 1897 में शहीद हो गयीं। छोटी-बड़ी चेचक, कालरा ,टीवी,एड्स आदि जैसे रोगों का राष्ट्रीय स्तर पर सफल प्रयास हुआ। आज तो महामारी के नाम पर भी लूट-खसोट,बेईमानी,भ्रष्टाचार के लिए कफनचोर,दवा-ऑक्सीजन ब्लैकमेलर का निंदनीय कार्य कर रहें हैं वहीं दूसरी तरफ पुलिस,डाक्टर,नर्स,पत्रकार,सफाई कर्मी,ड्राइवर,हेल्थकेयर में लगे हुए सभी मेडिकल स्टोर,किराना वाले,सब्जी-फल वाले,ऑगनबाड़ी कार्यकत्रियों का कार्य वंदनीय भी है। आज कोरोना पीड़ितों के साथ मानवता का व्यवहार करने के बजाय आतंकवादी और अछूतों जैसा व्यवहार हो रहा है। कोरोना के नाम पर अन्य रोगों से ग्रसित पीड़ितों के साथ अनुचित व्यवहार किया जा रहा है जो बहुत ही निंदनीय और शर्मनाक के साथ ही दंडनीय कृत्य है। आम जनता जिसे लोकतंत्र का मालिक कहा जाता है उसे भी अपने सामाजिक उत्तरदायित्व और नैतिक कर्तव्यों के प्रति सजग,सतर्क,सचेत और सावधान होना चाहिए।
राष्ट्रीय उत्तरदायित्व के साथ नागरिक कर्तव्य का बोध होना चाहिए क्योंकि राजनीतिज्ञों के सहारे सामाजिक व्यवस्था परिवर्तन का सपना देखना अंधों के शहर में आईना बेचने के समान है। सुख-दुख एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। अगर कोरोना ने महामारी के रूप में अंतर्राष्ट्रीय जान-माल का खतरा पैदा किया तो वहीं हित-अहित करने वाले(सच्चे हम दर्दों)वफादारों के साथ साथ देवालय आदि सभी के गेट बंद कर ढोंग-पाखंड,अंधविश्वास को आईना दिखाने का कार्य किया,चिकित्सा व विज्ञान पर भरोसा दिलाने का कार्य किया है। कोरोना ने एक नये भययुक्त,शोक युक्त और दुख युक्त वातावरण बनाने का कार्य किया है। इसी संदर्भ में किसी ने सही लिखा “खौफ ने सड़कों को वीरान कर दिया, वक्त ने जिंदगी को हैरान कर दिया, काम के बोझ से दबे हर इंसान को, आराम ने सबको परेशान कर दिया, कुछ सिखाकर यह भी गुजर जाएगा. फिर एक बार और इंसान मुस्कराएगा. मायूस न होना,इस बुरे वक्त से,कल… आज हैं और आज,कल हो जाएगा…. बुद्ध दर्शन ‘आदि । कल्याणं, मंझे कल्याणं,परियोसानं कल्याणं’ कहा गया है अर्थात् यह प्रारम्भ में कल्याणकर है मध्य में कल्याणकर है और अंत तक कल्याणकर ही है।
लेखक -ए.के. नन्द,सम्पादक,मास संदेश,हिन्दी मासिक पत्रिका (एल.बी.एस. पी.जी.कालेज,गोंडा,उ.प्र.) ।
व्हाट्सप्प आइकान को दबा कर इस खबर को शेयर जरूर करें |