Mission News:वीरांगना महारानी अवंतीबाई लोधी शहीद दिवस विशेष – बहुजन इंडिया 24 न्यूज

Mission News:वीरांगना महारानी अवंतीबाई लोधी शहीद दिवस विशेष

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वीरांगना महारानी अवंतीबाई लोधी शहीद दिवस विशेष

वीरांगना महारानी अवंतीबाई लोधी का जन्म 16 अगस्त 1831 को ग्राम मनकेहणी, जिला सिवनी के जमींदार राव जुझार सिंह के यहां हुआ था, इनके पिता राव जुझार सिंह 187 गांवों के जमींदार थे। वीरांगना अवंतीबाई लोधी की शिक्षा दीक्षा मनकेहणी ग्राम में ही हुई। अपने बचपन में अवंतीबाई लोधी ने तलवारबाजी और घुड़सवारी करना सीख लिया था। लोग इस बाल कन्या की तलवारबाजी और घुड़सवारी को देखकर आश्चर्यचकित होते थे। वीरांगना अवंतीबाई बाल्यकाल से ही बड़ी वीर और साहसी थीं। जैसे-जैसे वीरांगना अवंतीबाई बड़ी होती गयीं वैसे-वैसे उनकी वीरता के किस्से आसपास के क्षेत्र में फैलने लगे।
अवंतीबाई लोधी का विवाह रामगढ़ रियासत, जिला मण्डला के राजकुमार विक्रमादित्य सिंह के साथ हुआ और इसके बाद जुझार सिंह की ये साहसी कन्या रामगढ़ रियासत की कुलवधु बनी। सन् 1850 में रामगढ़ रियासत के राजा लक्ष्मण सिंह की मृत्यु हो गई इसके बाद राजकुमार विक्रमादित्य सिंह का रामगढ़ रियासत के राजा के रूप में राजतिलक किया गया, लेकिन राजा विक्रमादित्य सिंह का मन राजकाज की अपेक्षा धार्मिक कार्यों में अधिक लगता था। यही कारण था कि राज्य के सारे निर्णय रानी अवंतीबाई ही करती थीं। विक्रमादित्य के पुत्र अमर सिंह एवं शेर सिंह अभी शैशवावस्था में ही थे और राजा विक्रमादित्य सिंह मानसिक रूप से विक्षिप्त हो गए। अब दोनों पुत्रों और रामगढ़ की संपूर्ण जिम्मेदारी रानी के कंधों पर आ गई। राजा विक्रमादित्य सिंह के अस्वस्थ होने पर रानी अवंतीबाई लोधी ने राज्य कार्य संभाल कर अपनी सुयोग्यता का परिचय दिया।
रामगढ़ की राजनैतिक स्थिति का पता जब अंग्रेजी सरकार को लगा तो उन्होंने 13 सितम्बर 1851 को रामगढ़ रियासत को ‘कोर्ट ऑफ वार्डस’ के अधीन करके राज्य का प्रशासन अपने अधिकार क्षेत्र में ले लिया और प्रतिनिधि के रूप में शेख मोहम्मद और मोहम्मद अब्दुल्ला को नियुक्त करके रामगढ़ भेज दिया।
अतएव रानी अवंतीबाई लोधी ने अंग्रेजों के दोनों प्रतिनिधियों को राज्य से बाहर खदेड़ दिया। कुछ समय पश्चात राजा विक्रमादित्य का स्वास्थ्य और खराब हो गया और उनका देहावसान हो गया। अब राज्य का सारा जिम्मा रानी के सिर आ गया था। वहीं दूसरी ओर अंग्रेजों की राज्य हड़प नीति के चलते सतारा, नागपुर और झांसी सहित कई रियासतों का विलय ब्रिटिश साम्राज्य में जबरन कर लिया गया। जब बात रामगढ़ की रियासत पर आयी तो रानी अवंतीबाई ने इस फरमान का पुरजोर विरोध किया।
अंग्रेजी शासन की कुटिल नीति के विरुद्ध मंडला के गोंड राजा शंकर शाह की अध्यक्षता में आसपास के सभी राजाओं एवं जमीदारों का एक सम्मेलन बुलाकर एकजुट होने का संदेश दिया गया। इस विराट सम्मेलन के आयोजन हेतु रामगढ़ की रानी अवंतीबाई लोधी को प्रचार-प्रसार का दायित्व मिला। रानी के आवाहन की गूंज दूर-दूर तक गुंजायमान हुई और तय योजना के अनुसार आसपास के सभी राजा अंग्रेजों के विरुद्ध एकजुट हो गए। इधर देश में भी 1857 का महासमर प्रारंभ हो चुका था। गोंड राजा शंकर शाह ने अंग्रेजों के विरुद्ध क्रांति का उद्घोष किया। वह अंग्रेजों की सेना से बहुत बहादुरी से लड़े, किंतु अंग्रेजों की विशाल सेना के चलते उन्हें हार का सामना करना पड़ा। 18 सितंबर, 1857 को अंग्रेजों ने राजा शंकर शाह और उनके पुत्र रघुनाथ शाह को तोप से उड़ा दिया।
रानी अवंतीबाई के नेतृत्व में रामगढ़ के सेनापति ने भुआ बिछिया थाने पर धावा बोलकर उसे अपने अधिकार में ले लिया साथ ही घुघरी क्षेत्र पर भी अपना कब्जा कर लिया। विद्रोह की चिंगारी मंडला और रामगढ़ के संपूर्ण क्षेत्र में फैल गई जिसने अंग्रेज डिप्टी कमिश्नर वाडिंग्टन की नींद उड़ा दी। मंडला के राजा शंकर शाह की वीरगति के पश्चात यहां की रक्षा का दायित्व भी रानी अवंतीबाई ने बखूबी निभाया। 23 नवंबर, 1857 को मंडला की सीमा में स्थित खैरी नामक गांव में रानी और अंग्रेजों के मध्य भयंकर युद्ध हुआ। इस युद्ध में डिप्टी कमिश्नर वाडिंग्टन बुरी तरह परास्त हुआ और उसे मंडला से भागना पड़ा। बाद में अंग्रेजों ने रानी अवंतीबाई से प्रतिशोध लेने के लिए रीवा के राजा की सहायता से अचानक रामगढ़ पर हमला कर दिया। अंग्रेजों की विशाल सेना का रानी अवंतीबाई ने साहस के साथ मुकाबला किया, किंतु तत्कालीन परिस्थितियों का आकलन करते हुये रानी किले से प्रस्थान कर देवहारगढ़ की पहाडियों में जा पहुंचीं। रानी के रामगढ़ छोड़ देने के बाद अंगे्रजी सेना ने रामगढ़ का किला बुरी तरह ध्वस्त कर दिया और खूब लूटपाट की। इसके बाद अंग्रेजी सेना रानी का पता लगाती हुई देवहारगढ़ की पहाडियों के निकट पहुंची, यहाँ पर रानी ने अपने सैनिकों के साथ पहले से ही मोर्चा जमा रखा था। अंग्रेजो ने रानी के पास आत्मसमर्पण का सन्देश भिजवाया, लेकिन रानी ने सन्देश को अस्वीकार करते हुए सन्देश भिजवाया कि लड़ते-लड़ते बेशक मरना पड़े लेकिन अंग्रेजों के भार से दबूंगी नहीं।
20 मार्च, 1858 को देवहारगढ़ की पहाडियों में अंग्रेजों की विशाल सेना से रानी अवंतीबाई लोधी ने अपने कुछ सैनिकों के साथ साहस और वीरता के साथ युद्ध किया, लेकिन जब रानी को आभास हुआ कि उनकी मृत्यु निकट है तो उन्होंने रानी दुर्गावती का स्मरण करते हुये अपनी ही तलवार से स्वयं के प्राण मातृभूमि के रक्षार्थ अर्पण कर दिए।
आज हम वीरांगना महारानी अवंतीबाई लोधी की शहादत को नमन कर श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं|
जय अवन्ती जय अवन्ती

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