अर्जक संघ के बारे में जाने क्या है अर्जक संघ – बहुजन इंडिया 24 न्यूज

अर्जक संघ के बारे में जाने क्या है अर्जक संघ

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अर्जक संघ

रामस्वरूप वर्मा  ने 1961  में बहुजन समाज को जागृत करने के लिए व उनमें चेतना पैदा करने के लिए अर्जक संघ का गठन किया और मिशन और कारवां को आगे बढ़ाने के लिए अर्जक साप्ताहिक का सम्पादन और प्रकाशन प्रारंभ किया। अर्जक संघ अपने समय का सामाजिक क्रान्ति का एक ऐसा मंच था जिसने अंधविश्वास पर न सिर्फ हमला किया बल्कि उत्तर भारत से लेकर महाराष्ट्र और दक्षिण भारत की तरह सामाजिक न्याय के आन्दोलन का बिगुल फूंका।और सामाजिक चेतना पैदा की विज्ञानवाद और मानववाद की शिक्षा जन जन तक पहुंचाने का काम किया।

रामस्वरूप वर्मा का जन्म  22 अगस्त, 1923 और मृत्यु 19 अगस्त, 1998 को हुई। रामस्वरूप वर्मा एक समाजवादी धर्म निरपेक्ष नेता थे जिन्होने अर्जक संघ की स्थापना की। लगभग पचास साल तक राजनीति में सक्रिय रहे रामस्वरूप वर्मा को राजनीति का ‘कबीर’ कहा जाता है। उनके बारे में कहा जाता है कि वे डाॅ० राममनोहर लोहिया के निकट सहयोगी और उनके वैचारिक मित्र तथा 1967 में उत्तर प्रदेश सरकार के चर्चित वित्तमंत्री रहे जिन्होंने उस समय 20 करोड़ रूपये लाभ का बजट पेश कर पूरे आर्थिक जगत को अचम्भित कर दिया। उनका सार्वजनिक जीवन सदैव निष्कलंक, निडर, निष्पक्ष और व्यापक जनहितों को समर्पित एक उदाहरण के रूप में आज भी मिसाल कायम है।  राजनीति जीवन में जो मर्यादाएं और मानदंण्ड उन्होंने स्थापित किये और जिन्हें उन्होंने स्वयं भी जिया उनके लिए वे सदैव आदरणीय और स्मरणीय रहेंगे।

एक साथ 15 फोटो चित्रकारी हाथ से बनाकर वर्ल्ड रिकॉर्ड -नूरजहां अंसारी जनपद बदायूँ से ख़ास बातचीत


 

जीवन परिचय :

रामस्वरूप वर्मा का जन्म  22 अगस्त 1923 को कानपुर (वर्तमान कानपुर देहात) के ग्राम गौरीकरन में कुर्मी जाति में हुआ था। इनके पिता का नाम वंशगोपाल था। कानपुर देहात के एक किसान परिवार में जन्में रामस्वरूप वर्मा ने राजनीति को अपने कर्मक्षेत्र के रूप में छात्र जीवन में ही चुन लिया था बावजूद इसके कि छात्र जीवन में राजनीति में उन्होंने कभी हिस्सा नहीं लिया। उनकी प्रारम्भिक शिक्षा कालपी और पुखरायां में हुई । हाई स्कूल और इंटर की परीक्षाएं उच्च श्रेणी में उत्तीर्ण किया । वर्मा जी सदैव मेधावी छात्र रहे और स्वभाव से अत्यन्त सौम्य, विनम्र, मिलनसार व्यक्ति थे उनमें आत्म सम्मान और स्वभिमान उनके व्यक्तित्व में कूट-कूट कर भरा हुआ था। उन्होंने 14949 में इलाहाबाद विश्वविद्यालय हिन्दी में एम०ए० और इसके बाद कानून की डिग्री हासिल की। उन्होंने भारतीय प्रशासनिक सेवा की परीक्षा भी उत्तीर्ण की और इतिहास में सर्वोच्च अंक पाये जबकि पढ़ाई में इतिहास उनका विषय नहीं रहा।  नौकरी न करने दृढ़ निश्चय के कारण साक्षात्कार में शामिल नहीं हुए।
राजनीति कैरियर :
वर्मा जी अपने चार भाइयों में सबसे छोटे थे। अन्य तीन भाई गांव में खेती किसानी करते थे पर उनके सभी बड़े भाइयों ने वर्मा जी की पढ़ाई लिखाई पर न सिर्फ विशेष ध्यान दिया बल्कि अपनी रुचि के अनुसार कर्मक्षेत्र चुनने के लिए भी प्रोत्साहित किया। पढ़ाई के बाद सीधे राजनीति में आने पर परिवार ने कभी आपत्ति नहीं की बल्कि हर सम्भव उन्हें प्रोत्साहन और सहयोग दिया। सर्वप्रथम वे १९५७ में सोशलिस्ट पार्टी से भोगनीपुर विधानसभा क्षेत्र उत्तर प्रदेश विधान सभा के सद्स्य चुने गये, उस समय उनकी उम्र मात्र ३४ वर्ष की थी। १९६७ में संयुक्त सोशलिस्ट पर्टी से, १९६९ में निर्दलीय, १९८०, १९८९ में शोषित समाजदल से उत्तर प्रदेश विधान सभा के सदस्य चुने गये। १९९१ में छठी बार शोषित समाजदल से विधान सभा के सदस्य निर्वाचित हुए। जनान्दोलनों में भाग लेते हुए वर्मा जी १९५५, १९५७, १९५८, १९६०, १९६४, १९६९, और १९७६ में १८८ आई०पी०सी० की धारा ३ स्पेशल एक्ट धारा १४४ डी० आई० आर० आदि के अन्तर्गत जिला जेल कानपुर, बांदा, उन्नाव, लखनऊ तथा तिहाड़ जेल दिल्ली में राजनैतिक बन्दी के रूप में सजाएं भोगीं। वर्मा जी ने १९६७-६८ में उत्तर प्रदेश की संविद सरकार में वित्तमंत्री के रूप में २० करोड़ के लाभ का बजट पेश कर पूरे आर्थिक जगत को अचम्भे में डाल दिया। बेशक संविद सरकार की यह बहुत बड़ी उपलब्धि थी। कहा जाता है कि एक बार सरकार घाटे में आने के बाद फायदे में नहीं लाया जा सकता है, अधिक से अधिक राजकोषीय घाटा कम किया जा सकता है। दुनिया के आर्थिक इतिहास में यह एक अजूबी घटना थी जिसके लिए विश्व मीडीया ने वर्मा जी से साक्षात्कार कर इसका रहस्य जानना चाहा। संक्षिप्त जबाब में तो उन्होंने यही कहा कि किसान से अच्छा अर्थशास्त्री और कुशल प्रशासक कोई नहीं हो सकता क्योंकि लाभ-हानि के नाम पर लोग अपना व्यवसाय बदलते रहते हैं पर किसान सूखा-बाढ़ झेलते हुए भी किसानी करना नहीं छोडता।
वर्मा जी भले ही डिग्रीधारी अर्थशास्त्री नहीं थे पर किसान के बेटे होने का गौरव उन्हें प्राप्त था। बाबजूद इसके कि वर्मा जी ने कृषि, सिंचाई, शिक्षा, चिकित्सा, सार्वजनिक निर्माण जैसे तमाम महत्वपूर्ण विभागों को गत वर्ष से डेढ़ गुना अधिक बजट आवंटित किया तथा कर्मचारियों के मंहगाई भत्ते में वृद्धि करते हुए फायदे का बजट पेश किया।
अपनी पढ़ाई-लिखाई पूरी करते करते वर्मा जी समाजवादी विचारधारा के प्रभाव में आ गये थे और डा0 लोहिया के नेतृत्व में संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी में शामिल हो गये। डाॅ० राममनोहर लोहिया को अपनी पार्टी के लिए एक युवा विचारशील नेतृत्व मिल गया जिसकी तलाश उन्हें थी। डा० लोहिया को वर्मा जी के व्यक्तित्व की सबसे महत्वपूर्ण बात यह लगी कि उनके पास एक विचारशील मन है, वे संवेदनशील हैं, उनके विचारों में मौलिकता है, इन सबसे बड़ी बात यह थी किसान परिवार का यह नौजवान प्रोफेसरी और प्रशासनिक रुतबे की नौकरी से मुंह मोड़ कर राजनीति को सामाजिक कर्म के रूप में स्वीकार कर रहा है। डाॅ लोहिया को वर्मा जी का जिन्दगी के प्रति एक फकीराना नजरिया और निस्वार्थी-ईमानदार तथा विचारशील व्यक्तित्व बहुत भाया और उनके सबसे विश्वसनीय वैचारिक मित्र बन गये क्योंकि वर्मा जी भी डा० लोहिया की तरह देश और समाज के लिए कबीर की तरह अपना घर फूंकने वाले राजनैतिक कबीर थे। वर्मा जी अपने छात्र जीवन में आजादी की लड़ाई के चश्मदीद गवाह रहे पर उसमें हिस्सेदारी न कर पाने का मलाल उनके मन में था इसीलिए भारतीय प्रशासनिक सेवा की रुतबेदार नौकरी को लात मार कर राजनीति को देश सेवा का माध्यम चुना और राजनीति भी सिद्धान्तों और मूल्यों की। उन्होंने उत्तर प्रदेश विधान सभा के लिए पहला चुनाव १९५२ में भोगनीपुर चुनाव क्षेत्र से एक वरिष्ठ कांगे्रसी नेता रामस्वरूप गुप्ता के विरुद्ध लड़ा और महज चार हजार मतों से वे हारे पर १९५७ के चुनाव में उन्होंने रामस्वरूप गुप्ता को पराजित किया।

उन्हें राजनीति में स्वार्थगत समझौते अोहदों की दौड़ से सख्त नफरत थी। उनका ध्येय एक ऐसे समाज की संरचना करना था जिसमें हर कोई पूरी मानवीय गरिमा के साथ जीवन जी सके। वे सामाजिक आर्थिक, सामाजिक राजनैतिक न्याय के साथ साथ सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक और सांस्कृतिक बराबरी के प्रबल योद्धा थे और इसके लिए वे चतुर्दिक क्रान्ति अर्थात सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक और सांस्कृतिक क्रान्ति की लड़ाई एक साथ लड़े जाने पर जोर देते थे। वर्मा जी ने १९६९ में अर्जक संघ का गठन किया और अर्जक साप्ताहिक का सम्पादन और प्रकाशन प्रारंभ किया। अर्जक संघ अपने समय का सामाजिक क्रान्ति का एक ऐसा मंच था जिसने अंधविश्वास पर न सिर्फ हमला किया बल्कि उत्तर भारत में महाराष्ट्र और दक्षिण भारत की तरह सामाजिक न्याय के आन्दोलन का बिगुल फूंका। उन्हें उत्तर भारत का अंम्बेडकर भी कहा गया। मंगलदेव विशारद और महाराज सिंह भारती जैसे तमाम समाजवादी वर्मा जी के इस सामाजिक न्याय के आन्दोलन से जुड़े और अर्जक साप्ताहिक में क्रान्तिकारी वैचारिक लेख प्रकाशित हुए। उस समय के अर्जक साप्ताहिक का संग्रह विचारों का महत्वपूर्ण दस्तावेज है।वर्मा जी ने “क्रांन्ति क्यों और कैसे”, ब्राह्मणवाद की शव-परीक्षा, अछूत समस्या और समाधान, ब्राह्मणण महिमा क्यों और कैसे? मनुस्मृति राष्ट्र का कलंक, निरादर कैसे मिटे, अम्बेडकर साहित्य की जब्ती और बहाली, भंडाफोड़, ‘मानववादी प्रश्नोत्तरी’ जैसी महत्वपूर्ण पुस्तकें लिखी जो अर्जक प्रकाशन से प्रकाशित हुई़ं। महाराज सिंह भारती और रामस्वरूप वर्मा की जोड़ी “मार्क्स और एंगेल” जैसे वैचारिक मित्रों की जोड़ी थी और दोनों का अन्दाज बेबाक और फकीराना था। दोनों किसान परिवार के थे और दोनों के दिलों में गरीबी, अपमान अन्याय और शोषण की गहरी पीड़ा थी। महाराज सिंह भारती ने सांसद के रूप में पूरे विश्व का भ्रमण कर दुनिया के किसानों और उनकी जीवन पद्धति का गहन अध्ययन किया और उन्होंने महत्वपूर्ण पुस्तकें लिखी। उनकी पुस्तक “सृष्टि और प्रलय”, डार्विन की “आॅरजिन आॅफ स्पसीज” की टक्कर की सरल हिन्दी में लिखी गयी पुस्तक है जो आम आदमी को यह बताती है कि यह दुनिया कैसी बनी और यह भी बताती है कि इसे ईश्वर ने नहीं बनाया है बल्कि यह स्वतः कुदरती नियमों से बनी है और इसके विकास में मनुष्य के ष्रम की अहम भूमिका है। उनकी “ईश्वर की खोज” और भारत का नियोजित दिवाला जैसी अनेक विचार परक पुस्तकें हैं जो अर्जक प्रकाशन से प्रकाशित हुई हैं।

बिहार के ‘लेनिन’ कहे जाने वाले जगदेव बाबू ने वर्मा जी के विचारों और उनके संघर्षशील व्यक्तित्व से प्रभावित होकर शोषित समाज दल का गठन किया। जगदेव बाबू के राजनेतिक संघर्ष से आंतकित होकर उनके राजनैतिक प्रतिद्वन्दियों ने उनकी हत्या करा दी। जगदेव बाबू की शहादत से शोषित समाज दल को गहरा आघात लगा पर सामाजिक क्रान्ति की आग और तेज हुई। जगदेव बाबू बिहार के पिछड़े वर्ग के किसान परिवार से थे और वर्मा जी की तरह वे भी अपने संघर्ष के बूते बिहार सरकार मंत्री रहे। वर्मा जी का संपूर्ण जीवन देश और समाज को समर्पित था। उन्होंने “जिसमें समता की चाह नहीं/वह बढि़या इंसान नहीं, समता बिना समाज नहीं /बिन समाज जनराज नहीं जैसे कालजयी नारे गढ़े। राजनीति और राजनेता के बारे में एक साक्षात्कार में दिया गया उनका बयान गौर तलब है। राजनीति के बारे में उनका मानना है कि यह शुद्धरूप से अत्यन्त संवेदनशील सामाजिक कर्म है और एक अच्छे राजनेता के लिए सबसे ज्यादा जरूरी है कि उसे देश और स्थानीय समाज की समस्याअों की गहरी और जमीनी समझ हो और उनके हल करने की प्रतिबद्ध्ता हो। जनता अपने नेता को अपना आदर्श मानता है इसलिए सादगी, ईमानदारी, सिद्धान्तवादिता के साथ-साथ कर्तब्यनिष्ठा निहायत जरूरी है। वर्मा जी ने विधायकों के वेतन बढ़ाये जाने का विधान सभा में हमेशा विरोध किया और स्वयं उसे कभी स्वीकार नहीं किया। वर्मा जी ने संविद सरकार में सचिवालय से अंगे्रजी टाइप राइटर्स हटवा दिये और पहली बार हिन्दी में बजट पेश किया जो परंपरा अब बरकरार। वर्मा जी ने बजट में खण्ड-६ का समावेश किया जिसमें प्रदेश के कर्मचारियों/अधिकारियों का लेखा जोखा होता है, इसके पहले सरकारें कर्मचरियों के बिना किसी लेखे-जोखे के अपने कर्मचारियों को वेतन देती थी। वर्मा जी के चिन्तन में समग्रता थी। उन्होंने क्रन्ति को परिभाषित करते हुए कहा कि।

मात्र एक-दो घंटे में संपन्न हो गई शादी
लेकिन अर्जक पद्धति से विवाह बिलकुल अलग है। सादे समारोह में स्टेज पर ही वर-वधु को हिंदी में शपथ करा, माल्यार्पण और मंगलकामना कर मात्र एक-दो घंटों में शादी करा दी गई। लोगों ने इस पद्धति को बहुत सराहा। कई लोगों ने तो इसी पद्धति को अपनाने का संकल्प लिया।

रामस्वरूप वर्मा (22 अगस्त, 1923 – 19 अगस्त, 1998), एक समाजवादी नेता थे जिन्होने अर्जक संघ की स्थापना की। लगभग पचास साल तक राजनीति में सक्रिय रहे रामस्वरूप वर्मा को राजनीति का ‘कबीर’ कहा जाता है।

मनुस्मृति हिन्दू धर्म का एक प्राचीन धर्मशास्त्र (स्मृति) है। यह 1776 में अंग्रेजी में अनुवाद करने वाले पहले संस्कृत ग्रंथों में से एक था, ब्रिटिश फिलॉजिस्ट सर विलियम जोंस द्वारा, और ब्रिटिश औपनिवेशिक सरकार के लाभ के लिए हिंदू कानून का निर्माण करने के लिए इस्तेमाल किया गया था। मनुस्मृति में कुल 12 अध्याय हैं जिनमें 2684 श्लोक हैं। कुछ संस्करणों में श्लोकों की संख्या 2964 है।

इसकी गणना विश्व के ऐसे ग्रन्थों में की जाती है, जिनसे मानव ने वैयक्तिक आचरण और समाज रचना के लिए प्रेरणा प्राप्त की है। इसमें प्रश्न केवल धार्मिक आस्था या विश्वास का नहीं है। मानव जीवन की आवश्यकताओं की पूर्ति, किसी भी प्रकार आपसी सहयोग तथा सुरुचिपूर्ण ढंग से हो सके, यह अपेक्षा और आकांक्षा प्रत्येक सामाजिक व्यक्ति में होती है। विदेशों में इस विषय पर पर्याप्त खोज हुई है, तुलनात्मक अध्ययन हुआ है और समालोचनाएँ भी हुई हैं। हिन्दु समाज में तो इसका स्थान वेदत्रयी के उपरान्त हैं। मनुस्मृति की पचासों पाण्डुलिपियाँ प्राप्त हुईं हैं। कालान्तर में बहुत से प्रक्षेप भी स्वाभाविक हैं। साधारण व्यक्ति के लिए यह सम्भव नहीं है कि वह बाद में सम्मिलित हुए अंशों की पहचान कर सके। कोई अधिकारी विद्वान ही तुलनात्मक अध्ययन के उपरान्त ऐसा कर सकता है।

भारत से बाहर प्रभाव
एन्टॉनी रीड कहते हैं कि बर्मा, थाइलैण्ड, कम्बोडिया, जावा-बाली आदि में धर्मशास्त्रों और प्रमुखतः मनुस्मृति, का बड़ा आदर था। इन देशों में इन ग्रन्थों को प्राकृतिक नियम देने वाला ग्रन्थ माना जाता था और राजाओं से अपेक्षा की जाती थी कि वे इनके अनुसार आचरण करेंगे। इन ग्रन्थों का प्रतिलिपिकरण किया गया, अनुवाद किया गया और स्थानीय कानूनों में इनको सम्मिलित कर लिया गया।

‘बाइबल इन इण्डिया’ नामक ग्रन्थ में लुई जैकोलिऑट (Louis Jacolliot) लिखते हैं:

मनुस्मृति ही वह आधारशिला है जिसके ऊपर मिस्र, परसिया, ग्रेसियन और रोमन कानूनी संहिताओं का निर्माण हुआ। आज भी यूरोप में मनु के प्रभाव का अनुभव किया जा सकता है।
(Manu Smriti was the foundation upon which the Egyptian, the Persian, the Grecian and the Roman codes of law were built and that the influence of Manu is still felt in Europe.)

मनुस्मृति के प्रणेता एवं काल
मनुस्मृति के काल एवं प्रणेता के विषय में नवीन अनुसंधानकारी विद्वानों ने पर्याप्त विचार किया है। किसी का मत है कि “मानव” चरण (वैदिक शाखा) में प्रोक्त होने के कारण इस स्मृति का नाम मनुस्मृति पड़ा। कोई कहते हैं कि मनुस्मृति से पहले कोई ‘मानव धर्मसूत्र’ था (जैसे, मानव गृह्यसूत्र आदि हैं) जिसका आश्रय लेकर किसी ने एक मूल मनुस्मृति बनाई थी जो बाद में उपबृंहित होकर वर्तमान रूप में प्रचलित हो गई। मनुस्मृति के अनेक मत या वाक्य जो निरुक्त, महाभारत आदि प्राचीन ग्रंथों में नहीं मिलते हैं, उनके हेतु पर विचार करने पर भी कई उत्तर प्रतिभासित होते हैं। इस प्रकार के अनेक तथ्यों का बूहलर (Buhler, G.) (सैक्रेड बुक्स ऑव ईस्ट सीरीज, संख्या २५), पाण्डुरंग वामन काणे (हिस्ट्री ऑव धर्मशात्र में मनुप्रकरण) आदि विद्वानों ने पर्याप्त विवेचन किया है। यह अनुमान बहुत कुछ तर्कसंगत प्रतीत होता है कि मनु के नाम से धर्मशास्त्रीय विषय परक वाक्य समाज में प्रचलित थे, जिनका निर्देश महाभारत आदि में है तथा जिन वचनों का आश्रय लेकर वर्तमान मनुसंहिता बनाई गई, साथ ही प्रसिद्धि के लिये भृगु नामक प्राचीन ऋषि का नाम उसके साथ जोड़ दिया गया। मनु से पहले भी धर्मशास्त्रकार थे, यह मनु के “एते” आदि शब्दों से ही ज्ञात हुआ है। कौटिल्य ने “मानवाः” (मनुमतानुयायियों) का उल्लेख किया है।

विद्वानों के अनुसार मनु परम्परा की प्राचीनता होने पर भी वर्तमान मनुस्मृति ईसापूर्व चतुर्थ शताब्दी से प्राचीन नहीं हो सकती (यह बात दूसरी है कि इसमें प्राचीनतर काल के अनेक वचन संगृहीत हुए हैं), यह बात यवन, शक, कंबोज, चीन आदि जातियों के निर्देश से ज्ञात होती है। यह भी निश्चित हे कि स्मृति का वर्तमान रूप द्वितीय शती ईसा पूर्व तक दृढ़ हो गया था और इस काल के बाद इसमें कोई संस्कार नहीं किया गया।

मनुस्मृति की संरचना एवं विषयवस्तु
मनुस्मृति भारतीय आचार-संहिता का विश्वकोश है, मनुस्मृति में बारह अध्याय तथा दो हजार पाँच सौ श्लोक हैं, जिनमें सृष्टि की उत्पत्ति, संस्कार, नित्य और नैमित्तिक कर्म, आश्रमधर्म, वर्णधर्म, राजधर्म व प्रायश्चित आदि विषयों का उल्लेख है।

(१) जगत् की उत्पत्ति

(२) संस्कारविधि, व्रतचर्या, उपचार

(३) स्नान, दाराघिगमन, विवाहलक्षण, महायज्ञ, श्राद्धकल्प

(४) वृत्तिलक्षण, स्नातक व्रत

(५) भक्ष्याभक्ष्य, शौच, अशुद्धि, स्त्रीधर्म

(६) गृहस्थाश्रम, वानप्रस्थ, मोक्ष, संन्यास

(७) राजधर्म

(८) कार्यविनिर्णय, साक्षिप्रश्नविधान

(९) स्त्रीपुंसधर्म, विभाग धर्म, धूत, कंटकशोधन, वैश्यशूद्रोपचार

(१०) संकीर्णजाति, आपद्धर्म

(११) प्रायश्चित्त

(१२) संसारगति, कर्म, कर्मगुणदोष, देशजाति, कुलधर्म, निश्रेयस।

मनुस्मृति में व्यक्तिगत चित्तशुद्धि से लेकर पूरी समाज व्यवस्था तक कई ऐसी सुंदर बातें हैं जो आज भी हमारा मार्गदर्शन कर सकती हैं। जन्म के आधार पर जाति और वर्ण की व्यवस्था पर सबसे पहली चोट मनुस्मृति में ही की गई है (श्लोक-12/109, 12/114, 9/335, 10/65, 2/103, 2/155-58, 2/168, 2/148, 2/28)। सबके लिए शिक्षा और सबसे शिक्षा ग्रहण करने की बात भी इसमें है (श्लोक- 2/198-215)। स्त्रियों की पूजा करने अर्थात् उन्हें अधिकाधिक सम्मान देने, उन्हें कभी शोक न देने, उन्हें हमेशा प्रसन्न रखने और संपत्ति का विशेष अधिकार देने जैसी बातें भी हैं (श्लोक-3/56-62, 9/192-200)। राजा से कहा गया है कि वह प्रजा से जबरदस्ती कुछ न कराए (8/168)। यह भी कहा गया कि प्रजा को हमेशा निर्भयता महसूस होनी चाहिए (8/303)। सबके प्रति अहिंसा की बात की गई है

सप्तांग राज्य का सिद्धान्त
भारतीय राजदर्शन में मनु द्वारा प्रतिपादित सप्तांग राज्य सिद्धान्त अत्यन्त चर्चित है। इसके अनुसार, राज्य एक शरीर की भाँति है जिसके सात अंग हैं। ये सभी राज्य-रूपी शरीर की प्रकृतियां है जिनके बिना राज्य संचालन की कल्पना करना कठिन है। मनुस्मृति के अध्याय 9 के श्लोक 294 में राज्य के सात अंग गिनाये गये हैं-

(1) स्वामी अर्थात् राजा, (2) मंत्री, (3) पुर (दुर्ग), (4) राष्ट्र, (5) कोष, (6) दण्ड तथा (7) मित्र
इन सात अंगों से निर्मित राज्य का प्रत्येक अंग एक विशिष्ट कार्य करता है और इसी कारण उसका महत्व है। मनु के अनुसार यदि इनमें से किसी भी एक अंश की उपेक्षा होती है तो राजा के लिये राज्य का कुशल संचालन सम्भव नहीं है।

राजा सम्बन्धी विचार
मनु ने राजा को अनेक राजाओं के सारभूत अंश से निर्मित बताया है। राजा ईश्वर से उत्पन्न है अतः उसका अपमान नहीं हो सकता है। राजा से द्वेष करने का अर्थ है कि स्वयं को विनाश की ओर ले जाना। “मनु स्मृति में तो यहां तक लिखा है कि राजा में अनेक देवता प्रवेश करते हैं। अतः वह स्वयं एक देवता बन जाता है। “मनु स्मृति के अनुसार- “ऐसा राजा इन्द्र अथवा विद्युत के समान एश्वर्यकर्ता, पवन के समान सबके प्राणावत, प्रिय तथा हृदय की बात जानने वाला, यम के समान पक्षपात-रहित न्यायधीश, सूर्य के समान न्याय, धर्म तथा विद्या का प्रकाश, अग्नि के समान दुष्टों को भस्म करने वाला, वरूण के समान दुष्टों को अनेक प्रकार से बांधने वाला, चन्द्र के समान श्रेष्ठ पुरूषों को आनन्द देने वाला तथा कुबेर के समान कोष भरने वाला होना चाहिए।”

मनु ने राजा के गुणों एवं कर्तव्यों का विस्तृत विवरण प्रस्तुत किया है। मनु के अनुसार राजा को प्रजा तथा ब्राहमणों के प्रति विशेष रूप से संवेदनशील रहना चाहिए। राजा को अपने इन्द्रियों पर नियन्त्रण रखना चाहिए। उसे काम, क्रोध आदि से मुक्त रहना चाहिए। “मनुस्मृति” में स्पष्ट किया गया है कि उसे शिकार, जुआ, दिवाशयन, परनिन्दा, परस्त्री प्रेम, मद्यपान, नाच-गाना, चुगलखोरी, ईर्ष्या, परछिद्रान्वेषण, कटुवचन,धन का अपहरण आदि से बचना चाहिए। मनु स्मृति में राजा के लिये मुख्य निर्देश निम्न हैं

1.वह शस्त्र धन, धान्य, सेना, जल आदि से परिपूर्ण पर्वतीय दुर्ग में हर प्रकार से सुरक्षित निवास करे ताकि वह शत्रुओं से बच सके।

2.राजा स्वजातीय और सर्वगुण सम्पन्न स्त्री से विवाह करे।

3. राजा समय-समय पर यज्ञ का आयोजन करे और ब्राह्मणों को दान करे।

4. प्रजा से कर वसूली ईमानदार एवं योग्य कर्मचारियों के द्वारा किया जाना चाहिए। प्रजा के साथ राजा का संबंध पिता-पुत्र की तरह होना चाहिए।

5. राजा को युद्ध के लिये तैयार रहना चाहिए। युद्ध में मृत्यु से उसे स्वर्ग की प्राप्ति होगी।

6. विभिन्न राजकीय कार्यों के लिये विभिन्न अधिकारियों की नियुक्ति की जाय।

7. राजा को विस्तारवादी नीति को अपनाना चाहिए।

8. अपने सैन्य बल एवं बहादुरी का सदैव प्रदर्शन करना चाहिए।

9. गोपनीय बातों का गोपनीय बनाकर रखना चाहिए। शत्रुओं की योजनाओं को समझने के लिये मजबूत गुप्तचर व्यवस्था रखनी चाहिए।

10. अपने मंत्रियों को सदैव विश्वास में रखना चाहिए।

11. राजा सदैव सर्तक रहे। अविश्वसनीय पर बिल्कुल विश्वास न करे और विश्वसनीय पर पैनी निगाह रखे।

12. राजा को राज्य की रक्षा तथा शत्रु के विनाश के लिये तत्पर रहना चाहिए।

13. राजा को अपने कर्मचारियों, अधिकारियों के आचरण की जांच करते रहना चाहिए। गलत पाने पर उनको पदच्युत कर देना चाहिए।

14. राजा को मृदुभाषी होना चाहिए।

मनु ने राजा की दिनचर्या का भी वर्णन किया है। उनने सम्पूर्ण दिन को तीन भागों में बांटकर प्रत्येक के लिये अलग-अलग कार्य निर्धारित किये हैं। राजा को स्नान एवं ध्यान के बाद ही न्याय का कार्य करना चाहिए। राजकार्यों के संबंध में अपने मंत्रियों के साथ तथा विदेश मामलों में अपने गुप्तचरों एवं राजदूतों के साथ परामर्श नियमित रूप से करना चाहिए। “मनुस्मृति” में राजा के गतिशील जीवन की चर्चा की गई है। इसमें राजा को सदैव सजग और सावधान रहने की आशा की जाती है।

युद्ध एवं संकट के समय राजा के कार्य
मनुस्मृति में युद्ध के समय राजा के कर्तव्यों पर प्रकाश डाला गया है। इसमें स्पष्ट किया गया है कि युद्ध के समय राजा को भयभीत नहीं होना चाहिए और पूरी तैयारी और मनोबल के साथ शत्रु का संहार करना चाहिए। यह राजा का धर्म है कि वह शत्रु का संहार कर मातृभूमि की रक्षा करें। “मनुस्मृति” में स्पष्ट किया गया है कि शांति के समय प्रजा के धान्य का छठा-आठवां भाग प्राप्त करे परन्तु युद्ध के समय वह चौथा भाग भी प्राप्त कर सकता है। आपातकाल में राजा द्वारा अतिरिक्त कर लेना कोई पाप नहीं है।

शासन-संबंधी विचार
मनु के अनुसार शासन का मुख्य उद्देश्य धर्म, अर्थ, काम की प्राप्ति में सहायक होना है। अतः राजा को अपने सहयोगियों (मंत्रियों) के माध्यम से इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिये सदैव प्रयत्नशील रहना चाहिए। मनुस्मृति में स्पष्ट किया गया है कि राजा को सदैव लक्ष्यों को प्राप्त करने का प्रयास करना चाहिए, जो प्राप्त हो गया है उसे सुरक्षित रखने का प्रयास करना चाहिए। राजकोष को भरने का सदैव प्रयास करना चाहिए। समाज के कमजोर एवं सुपात्र लोगों को दान करना चाहिए। राजा को प्रजा के साथ पुत्रवत वर्ताव करना चाहिए तथा राष्ट्रहित में कठोर भी हो जाना चाहिए। राजा को न्यायी, सिद्धान्तप्रिय तथा मातृभूमि से प्रेम करने वाला होना चाहिए।

राजा को राजकार्य में सहायता देने के लिए मंत्रियों की व्यवस्था है। मनुस्मृति में “मंत्री” शब्द का प्रयोग नहीं है परन्तु ‘सचिव’ शब्द का प्रयोग कई बार मिलता है। मनुस्मृति में कहा गया है कि अकेले आदमी से सरल काम भी मुश्किल हो जाता है। अतः शासन के जटिल कार्यों के लिये मंत्री नियुक्त किये जाने चाहिए। वे विद्वान, कर्तव्यपरायण, शास्त्रज्ञाता, कुलीन तथा अनुभवी होने चाहिए। शासन कार्य में एकांत में तथा अलग-अलग तथा आवश्यकतानुसार संयुक्त मत्रंणा करनी चाहिए। मंत्रियों को उनकी योग्यतानुसार कार्य सौंपना चाहिए। यहां पर मनु स्पष्ट करते हैं – ‘सूर, दक्ष और कुलीन सदस्य को वित्त विभाग; शुचि आचरण से युक्त व्यक्ति को रत्न एवं खनिज विभाग; सम्पूर्ण शाखों के ज्ञाता मनोवैज्ञानिक, अन्तःकरण से शुद्ध तथा चतुर कुलीन व्यक्ति को संधि-विग्रह विभाग का अधिष्ठाता बनाया जाना चाहिए। मंत्रिपरिषद के अमात्य नामक व्यक्ति को दण्ड विभाग, सेना विभाग तथा राजा को राष्ट्र एवं कोष अपने अधीन रखना चाहिए। इनमें से वह ब्राह्मणों को विशेष महत्व देने पर बल देते हैं। उनका मत है कि -” इस पृथ्वी पर जो कुछ भी है वह ब्राह्मण ही है। ब्राह्मण ब्रह्मा का ज्येष्ठ एवं श्रेष्ठ पुत्र है।”

मनु की मान्यता है कि मत्रणा अत्यन्त गोपनीय होनी चाहिए। इसके लिए मध्याह्न अथवा आधी रात को उपयुक्त माना है। मनुस्मृति से यह भी पता चलता है कि उस समय मंत्रियों का राजा के प्रति उत्तरदायित्व, मत्रंणा की गोपनीयता मिलकर निर्णय लेने की भावना तथा मंत्रियों में विभागों के बंटवारे की व्यवस्था विकसित हो गई थी। प्रशासनिक कार्यों के संचालन के लिये वह योग्य, अनुभवी तथा ईमानदार कर्मचारी की नियुक्ति के पक्षधर हैं। भ्रष्ट अधिकारियों पर पैनी निगाह रखते हुए उनके विरूद्ध कठोर कार्यवाही करने चाहिए। कर्मचारियों एवं महत्वपूर्ण पदाधिकारियों पर नजर रखने के लिये गुप्तचर व्यवस्था को प्रभावी बनाया जाना चाहिए। राजदूत के संबंध में मनु ने स्पष्ट किया है कि निर्भीक प्रकृति के, सुवक्ता, देश-काल पहचानने वाले, हृदय एवं मनोभाव को पहचानने वाले, विविध लिपियों के ज्ञाता तथा विश्वासपात्र को राजदूत बनाया जाना चाहिए।
टीकाएं
मनु पर कई व्याख्याएँ

(1) मेधातिथि कृत भाष्य;
(2) कुल्लूक भट्ट द्वारा रचित मन्वर्थमुक्तावली टीका;
(3) नारायण कृत मन्वर्थ विवृत्ति टीका;
(4) राघवानन्द कृत मन्वर्थ चन्द्रिका टीका;
(5) नन्दन कृत नन्दिनी टीका;
(6) गोविन्दराज कृत मन्वाशयानसारिणी टीका आदि।
मनु के अनेक टीकाकारों के नाम ज्ञात हैं, जिनकी टीकाएँ अब लुप्त हो गई हैं, यथा- असहाय, भर्तृयज्ञ, यज्वा, उपाध्याय ऋजु, विष्णुस्वामी, उदयकर, भारुचि या भागुरि, भोजदेव धरणीधर आदि।

भारत में वेदों के उपरान्त सर्वाधिक मान्यता और प्रचलन ‘मनुस्मृति’ का ही है। इसमें चारों वर्णों, चारों आश्रमों, सोलह संस्कारों तथा सृष्टि उत्पत्ति के अतिरिक्त राज्य की व्यवस्था, राजा के कर्तव्य, भांति-भांति के विवादों, सेना का प्रबन्ध आदि उन सभी विषयों पर परामर्श दिया गया है जो कि मानव मात्र के जिवन में घटित होने सम्भव हैं यह सब धर्म-व्यवस्था वेद पर आधारित है।[9] मनु महाराज के जीवन और उनके रचनाकाल के विषय में इतिहास-पुराण स्पष्ट नहीं हैं, तथापि सभी एक स्वर से स्वीकार करते हैं कि मनु आदिपुरुष थे और उनका यह शास्त्र आदिशास्त्र है क्योंकि मनु की समस्त मान्यताएँ सत्य होने के साथ-साथ देश, काल तथा जाति बन्धनों से रहित हैं।

मनुस्मृति के कुछ चुने हुए विचार (श्लोक)
जन्मना जायते शूद्र: कर्मणा द्विज उच्यते।
अर्थ – जो जन्म से शूद्र होते हैं, कर्म के आधार पर द्विज कहलाते हैं।
धृति क्षमा दमोस्तेयं, शौचं इन्द्रियनिग्रहः।
धीर्विद्या सत्यं अक्रोधो, दशकं धर्मलक्षणम्
अर्थ – धर्म के दस लक्षण हैं – धैर्य, क्षमा, संयम, चोरी न करना, स्वच्छता, इन्द्रियों को वश में रखना, बुद्धि, विद्या, सत्य और क्रोध न करना (अक्रोध)।
नास्य छिद्रं परो विद्याच्छिद्रं विद्यात्परस्य तु।
गूहेत्कूर्म इवांगानि रक्षेद्विवरमात्मन: ॥
वकवच्चिन्तयेदर्थान् सिंहवच्च पराक्रमेत्।
वृकवच्चावलुम्पेत शशवच्च विनिष्पतेत् ॥
अर्थ – कोई शत्रु अपने छिद्र (निर्बलता) को न जान सके और स्वयं शत्रु के छिद्रों को जानता रहे, जैसे कछुआ अपने अंगों को गुप्त रखता है, वैसे ही शत्रु के प्रवेश करने के छिद्र को गुप्त रक्खे। जैसे बगुला ध्यानमग्न होकर मछली पकड़ने को ताकता है, वैसे अर्थसंग्रह का विचार किया करे, शस्त्र और बल की वृद्धि कर के शत्रु को जीतने के लिए सिंह के समान पराक्रम करे। चीते के समान छिप कर शत्रुओं को पकड़े और समीप से आये बलवान शत्रुओं से शश (खरगोश) के समान दूर भाग जाये और बाद में उनको छल से पकड़े।
नोच्छिष्ठं कस्यचिद्दद्यान्नाद्याचैव तथान्तरा।
न चैवात्यशनं कुर्यान्न चोच्छिष्ट: क्वचिद् व्रजेत् ॥
अर्थ – न किसी को अपना जूठा पदार्थ दे और न किसी के भोजन के बीच आप खावे, न अधिक भोजन करे और न भोजन किये पश्चात हाथ-मुंह धोये बिना कहीं इधर-उधर जाये।
तैलक्षौमे चिताधूमे मिथुने क्षौरकर्मणि।
तावद्भवति चांडालः यावद् स्नानं न समाचरेत् ॥
अर्थ – तेल-मालिश के उपरान्त, चिता के धूंऐं में रहने के बाद, मिथुन (संभोग) के बाद और केश-मुण्डन के पश्चात – व्यक्ति तब तक चांडाल (अपवित्र) रहता है जब तक स्नान नहीं कर लेता – मतलब इन कामों के बाद नहाना जरूरी है।
अनुमंता विशसिता निहन्ता क्रयविक्रयी।
संस्कर्त्ता चोपहर्त्ता च खादकश्चेति घातका
अर्थ – अनुमति (= मारने की आज्ञा) देने, मांस के काटने, पशु आदि के मारने, उनको मारने के लिए लेने और बेचने, मांस के पकाने, परोसने और खाने वाले – ये आठों प्रकार के मनुष्य घातक, हिंसक अर्थात् ये सब एक समान पापी हैं।
मनु और कौटिल्य के विचारों की तुलना
मनु और कौटिल्य प्राचीन भारत के प्रमुख राजनीतिक विचारक थे। उनके विचारों में अनेक बिन्दुओं पर समानता तथा अनेक बिन्दुओं पर असमानता दिखायी पड़ती है।

दोनों ही विद्वान प्राचीन भारतीय परम्पराओं रीतियों एवं वर्णाश्रम व्यवस्था को स्वीकार करते हैं। कौटिल्य ने सृष्टि के सम्बन्ध में स्पष्ट मत नहीं रखा है परन्तु मनु का मत है कि ब्राह्मणों का जन्म ब्रह्मा के मुख से, क्षत्रियों की उत्पति उनकी भुजाओं से, वैश्यों की उत्पति उनके पेट से हुई है। दोनों मानव जीवन का मुख्य उद्देश्य धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष मानते है। दोनों ही दण्डनीति को स्वीकार करते है। मनु के अनुसार दण्ड ही राजा है। राज्य की उत्पति के संबंध में दोनों के विचार समान है। मनु दैवीय उत्पति के सिद्धान्त को तो मानते हैं परन्तु उसमें समझौते की झलक मिलती है। कौटिल्य भी उत्पति के संबंध में समझौतावादी सिद्धान्त स्वीकार करता है। दोनों ही सावयवी सिद्धान्त (Organic Theory), को स्वीकार करते हुए राज्य रूपी शरीर के सात अंग (सप्ताङ्ग) बताये है। इनमें स्वामी, अमात्य, जनपद, दुर्ग, कोष, दण्ड और मित्र प्रमुख हैं। दोनों ने ही राजतन्त्र को श्रेष्ठ शासन माना है। वे राज्य को सर्व सत्ताधारी बताते है। दोनों की राज्य का समान लक्ष्य मानते हैं। दोनों ने प्रशासन में मंत्रियों की भूमिका को स्वीकार किया है। मंत्रियों की योग्यता के संबंध में दोनों के विचार समान है। कौटिल्य ने राजनीतिक व्यवस्था पर अपनी पुस्तक अर्थशास्त्र में व्यापक व्याख्या की परन्तु मनु ने इतनी व्यापक व्याख्या नहीं की। कर व्यवस्था पर दोनों के विचार समान हैं। वे कर जन-कल्याण के लिये लगाने पर बल देते थे। अन्तर्राष्ट्रीय मामलों अथवा विदेश नीति के संचालन में दोनों ही षाड्गुण्य नीति तथा मण्डल सिद्धान्त का प्रतिपादन किया।

विवाद
“एक लड़की हमेशा अपने पिता के संरक्षण में रहनी चाहिए, शादी के बाद पति उसका संरक्षक होना चाहिए, पति की मौत के बाद उसे अपने बच्चों की दया पर निर्भर रहना चाहिए, किसी भी स्थिति में एक महिला आज़ाद नहीं हो सकती।”

मनुस्मृति के पांचवें अध्याय के 151वें श्लोक में ये बात लिखी है। ये महिलाओं के बारे में मनुस्मृति की राय साफ़ तौर पर बताती है।

आधुनिक टिप्पणियाँ

मनुस्मृति के दृश्य भारतीय नेताओं में भिन्न हैं। अंबेडकर (बाएं) ने इसे 1927 में जला दिया, जबकि गांधी (दाएं) ने इसे उदात्त और साथ ही विरोधाभासी शिक्षाओं का मिश्रण पाया। गांधी ने एक महत्वपूर्ण पढ़ने, और उन भागों की अस्वीकृति का सुझाव दिया जो अहिंसा के विपरीत थे।
मनुस्मृति मूल्यांकन और आलोचना के अधीन है। 20 वीं शताब्दी की शुरुआत में पाठ के उल्लेखनीय भारतीय आलोचकों में डॉ बी आर अम्बेडकर थे, जिन्होंने भारत में जाति व्यवस्था के लिए मनुस्मृति को जिम्मेदार ठहराया। विरोध में, अम्बेडकर ने 25 दिसंबर, 1927 को मनुस्मृति को अलाव में जलाया। जबकि डॉ. भीमराव आम्बेडकर ने मनुस्मृति की निंदा की, महात्मा गांधी ने पुस्तक को जलाने का विरोध किया। उत्तरार्द्ध ने कहा कि जबकि जातिगत भेदभाव आध्यात्मिक और राष्ट्रीय विकास के लिए हानिकारक था, इसका हिंदू धर्म और मनुस्मृति जैसे ग्रंथों से कोई लेना-देना नहीं था। गांधी ने तर्क दिया कि पाठ अलग-अलग कॉलिंग और व्यवसायों को पहचानता है, किसी के अधिकारों को नहीं बल्कि किसी के कर्तव्यों को परिभाषित करता है, कि शिक्षक से लेकर चौकीदार तक सभी के लिए समान रूप से आवश्यक है, और समान दर्जा। गांधी ने मनुस्मृति को उदात्त शिक्षाओं को शामिल करने के लिए माना लेकिन एक पाठ जिसमें असंगति और अंतर्विरोध थे, जिसका मूल पाठ किसी के अधिकार में नहीं है। उन्होंने सिफारिश की कि किसी को पूरे पाठ को पढ़ना चाहिए, मनुस्मृति के उन हिस्सों को स्वीकार करना चाहिए जो “सत्य और अहिंसा (दूसरों के लिए अहिंसा या अहिंसा)” और अन्य भागों की अस्वीकृति के अनुरूप हैं।

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अर्जक संघ क्या है और इसकी स्थापना

लगभग पचास साल तक राजनीति में सक्रिय रहे रामस्वरूप वर्मा को राजनीति का ‘कबीर’ कहा जाता है. किसान परिवार मेें जन्मे वर्मा ने एक लेखक, समाज सुधारक और चिंतक के रूप में उत्तर भारत पर गहरा असर डाला

एक ऐसे वक्त में जब अंधश्रद्धा का विरोध करने वाले लेखकों नरेंद्र दाभोलकर, गोविंद पानसरे व एमएम कलबुर्गी आदि को इसके लिए अपनी जान गंवानी पड़ रही है और बड़ी संख्या में ऐसे संगठनों और लोगों को अतिवादियों की धमकियों और प्रताड़ना का शिकार होना पड़ा है तो आज से करीब पांच छह दशक पहले इन कुरीतियों के खिलाफ आवाज बुलंद करने वाले राम स्वरूप वर्मा की प्रासंगिकता बढ़ जाती है.उत्तर प्रदेश के कानपुर देहात के गौरीकरन नामक गांव के एक किसान परिवार में 22 अगस्त 1923 को जन्मे राम स्वरूप वर्मा का ध्येय एक ऐसे समाज की संरचना करना था जिसमें हर कोई पूरी मानवीय गरिमा के साथ जीवन जी सके.आचार्य नरेंद्र देव और राम मनोहर लोहिया के करीबी रहे रामस्वरूप वर्मा कई बार विधायक चुने गए थे. वे 1967 में चौधरी चरण सिंह के मुख्यमंत्री रहने के दौरान उत्तर प्रदेश के वित्त मंत्री भी रहे. प्रखर एवं प्रतिबद्ध समाजवादी रामस्वरूप वर्मा आजादी के बाद भारतीय राजनीति में उस पीढी के सक्रिय राजनेता थे, जिन्होंने विचारधारा और व्यापक जनहितों की राजनीति के लिये अपना सर्वस्व अर्पित कर दिया.लगभग पचास साल तक राजनीति में सक्रिय रहे रामस्वरूप वर्मा को राजनीति का कबीर कहा जाता है. 1957 में रामस्वरूप वर्मा सोशलिस्ट पार्टी से भोगनीपुर विधानसभा से उत्तर प्रदेश विधानसभा के सदस्य चुने गये, उस समय उनकी उम्र 34 वर्ष थी. 1967 में संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी से, 1969 में निर्दलीय, 1980, 1989 में शोषित समाज दल से विधानसभा के सदस्य निर्वाचित हुए, 1999 में छठी बार शोषित समाज दल से विधानसभा के सदस्य चुने गये.अर्जक संघ की स्थापना 1 जून, 1968 को की थी.अर्जक संघ मानववादी संस्कृति का विकास करने का काम करता है. इसका मकसद मानव में समता का विकास करना, ऊंच-नीच के भेदभाव को दूर करना और सबकी उन्नति के लिए काम करना है. संघ 14 मानवतावादी त्योहार मनाता है. इनमें गणतंत्र दिवस, आंबेडकर जयंती, बुद्ध जयंती, स्वतंत्रता दिवस के अलावा बिरसा मुंडा और पेरियार रामास्वामी की पुण्यतिथियां भी शामिल हैं.अर्जक संघ के अनुयायी सनातन विचारधारा के उलट जीवन में सिर्फ दो संस्कार ही मानते हैं- विवाह और मृत्यु संस्कार. शादी के लिए परंपरागत रस्में नहीं निभाई जातीं. लड़का-लड़की संघ की पहले से तय प्रतिज्ञा को दोहराते हैं और एक-दूसरे को वरमाला पहनाकर शादी के बंधन में बंध जाते हैं.मृत्यु के बाद अंतिम संस्कार मुखाग्नि या दफना-कर पूरा किया जाता है, लेकिन बाकी धार्मिक कर्मकांड इसमें नहीं होते. इसके 5 या 7 दिन बाद सिर्फ एक शोकसभा होती है. अर्जक संघ के मुताबिक, दरअसल हमारे हिंदू समाज में जन्म के आधार पर बहुत ही ज्यादा भेदभाव किया गया है. कोई पैदा होते ही ब्राह्मण, तो कोई वाल्मीकि होता है. ब्राह्मण समाज धर्मग्रंथों का सहारा लेकर सदियों से नीची जातियों का दमन करते आए हैं.उनके बारे में भाषाविद राजेंद्र प्रसाद सिंह कहते हैं, ‘रामस्वरूप वर्मा सिर्फ राजनेता नहीं थे, बल्कि एक उच्चकोटि के दार्शनिक, चिंतक और रचनाकार भी थे. उन्होंने कई महत्वपूर्ण पुस्तकों की रचना की है. क्रांति क्यों और कैसे, मानववाद बनाम ब्राह्मणवाद, मानववाद प्रश्नोत्तरी, ब्राह्मणवाद महिमा क्यों और कैसे, अछूतों की समस्या और समाधान, आंबेडकर साहित्य की जब्ती और बहाली, निरादर कैसे मिटे, शोषित समाज दल का सिद्धांत, अर्जक संघ का सिद्धांत, वैवाहिक कुरीतियां और आदर्श विवाह पद्धति, आत्मा पुनर्जन्म मिथ्या, मानव समता कैसे, मनुस्मृति राष्ट्र का कलंक आदि उनकी प्रमुख रचनाएं हैं.’वे कहते हैं, ‘वर्मा की अधिकांश रचनाएं ब्राह्मणवाद के खिलाफ हैं. पुनर्जन्म, भाग्यवाद, जात-पात, ऊंच-नीच का भेदभाव और चमत्कार सभी ब्राह्मणवाद के पंचांग हैं जो जाने-अनजाने ईसाई, इस्लामी, बौद्ध  आदि मानववादी संस्कृतियों में प्रकारांतर से स्थान पा गए हैं. वे मानववाद के प्रबल समर्थक थे. वे मानते थे कि मानववाद वह विचारधारा है जो मानव मात्र के लिए समता, सुख और समृद्धि का मार्ग प्रशस्त करती है.’रामस्वरूप ने आंबेडकर की पुस्तक जब्ती के खिलाफ आंदोलन भी किया था. डॉक्टर भगवान स्वरूप कटियार द्वारा संपादित किताब ‘रामस्वरूप वर्मा: व्यक्तित्व और विचार’ में उपेंद्र पथिक लिखते हैं, ‘जब उत्तर प्रदेश सरकार ने डॉ. भीमराव आंबेडकर द्वारा लिखित पुस्तक जाति भेद का उच्छेद और अछूत कौन पर प्रतिबंध लगा दिया तो रामस्वरूप ने अर्जक संघ के बैनर तले सरकार के विरुद्ध आंदोलन किया, साथ ही अर्जक संघ के नेता ललई सिंह यादव के हवाले से इस प्रतिबंध के खिलाफ इलाहाबाद हाई कोर्ट में मुकदमा दर्ज करा दिया. वर्मा जी खुद कानून के अच्छे जानकार थे. अंतत: मुकदमे में जीत हुई और उन्होंने सरकार को आंबेडकर के साहित्य को सभी राजकीय पुस्तकालयों में रखने की मंजूरी दिलाई.’उन्हें याद करते हुए वरिष्ठ लेखक मुद्राराक्षस कहते थे, ‘यह इस देश का दुर्भाग्य है कि इतना मौलिक विचारक और नेता अधिक दिन जीवित नहीं रह सका, लेकिन इससे भी बड़ा दुर्भाग्य यह है कि समाज को इतने क्रांतिकारी विचार देने वाले वर्मा को उत्तर भारत में लगभग पूरी तरह से भुला दिया गया.’रामस्वरूप वर्मा ने कभी भी सिद्धांतों से समझौता नहीं किया. उनकी दिलचस्पी राजनीति से अधिक सामाजिक परिवर्तन में थी. वह वैज्ञानिक चेतना पर जोर देते थे. उनका निधन 19 अगस्त, 1998 को लखनऊ में हुआ.एक ऐसे वक्त में जब अंधविश्वास और सांप्रदायिकता के खिलाफ लड़ाई में सिर्फ अतिवादियों से ही नहीं पूंजीवादी व्यवस्था से भी लड़ना है तो राम स्वरूप वर्मा के वैज्ञानिक, तर्कयुक्त और पाखंड से दूर विचार उपयोगी साबित हो सकते हैं.


रामस्वरूप वर्मा और ब्राह्मणवाद के विरुद्ध मानवतावाद की मशाल बना अर्जक आंदोलन

अर्जक संघ ने तीन बड़े परिवर्तन किए: ब्राह्मणवादी विवाह के स्थान पर अर्जक विवाह, मरने पर होने वाले ब्रह्मभोज के स्थान पर शोक सभा का विकल्प दिया और ब्राह्मणवादी तीज-त्यौहारों के स्थान पर 11 प्रमुख पर्व मनाने पर जोर दिया। ये पर्व हैं: गणतन्त्र दिवस- 26 जनवरी, उल्लास दिवस-1 मार्च, चेतना दिवस- 14 अप्रैल, मानवता दिवस- बुद्धजयन्ती, समता दिवस- 1 जून, अर्जक संघ की स्थापना पर, स्वतन्त्रता दिवस- 15 अगस्त, शहीद दिवस- 5 सितम्बर, जगदेव बाबू के शहादत की याद में,  लाभ दिवस- 1 अक्टूबर, फसल आने की खुशी में, एकता दिवस- 13 अक्टूबर पटेल के जन्मदिन पर,  शक्ति दिवस- 25 नवम्बर, जोतिबा फुले के जन्मदिन पर,  विवेक दिवस- 25 दिसम्बर, रामास्वामी नायकर के निधन पर।उन्नीस सौ पचास और साठ के दशकों में चन्द्रिकाप्रसाद जिज्ञासु की ब्राह्मणवाद-विरोधी वैचारिकी ने हिन्दी क्षेत्र में जो क्रान्तिकारी दस्तक दी, रामस्वरूप वर्मा उसी की उपज थे। रामस्वरूप वर्मा का जन्म 22 अगस्त 1923 को ग्राम गौरीकरन, जिला कानपुर देहात में हुआ। उनके पिता वंश गोपाल किसान थे। उन्होंने 1949 में इलाहाबाद विश्वविद्यालय से हिन्दी में एम.ए. किया और बाद में कानून की डिग्री अर्जित की। उन्होंने भारतीय प्रशासनिक सेवा की परीक्षा भी उत्तीर्ण की, पर साक्षात्कार में शामिल नहीं हुए। वे सरकारी अधिकारी या वकील बनकर जीवन-यापन करना नहीं चाहते थे, बल्कि वे किसान-मजदूरों की लड़ाई लड़ने के लिए राजनीति में आ गए। वे उस समय के सबसे चर्चित और लोकप्रिय समाजवादी नेता डा. राममनोहर लोहिया के सम्पर्क में आए, और उनकी सोशलिस्ट पार्टी के सदस्य बन गए। वे कई बार उत्तर प्रदेश विधनसभा के सदस्य निर्वाचित हुए, और एक बार 1967 में उत्तर प्रदेश सरकार में वित्त मन्त्री भी हुए।इसी काल में, जैसा कि माता प्रसाद ने लिखा है,- ‘आगे चलकर उनकी सोच बनी कि सामाजिक और सांस्कृतिक क्रान्ति के बिना सामाजिक और आर्थिक समानता नहीं प्राप्त की जा सकती। इसलिए सामाजिक-आर्थिक क्रान्ति के लिए 1 जून 1968 को उन्होंने ‘अर्जक संघ’ की स्थापना की। इससे समाजवादी, सोशलिस्ट पार्टी के ब्राह्मणवादी तत्व उनके विरोधी हो गए। उनकी मांग थी कि वर्माजी या तो अर्जक संघ में रहें या समाजवादी पार्टी में। इसी विरोध के फलस्वरूप उन्हें 1969 के विधनसभा के चुनाव में पार्टी का सिम्बल देने में जानबूझकर विलम्ब किया गया। इसलिए वे निर्दलीय चुनाव लड़कर विधनसभा में आए।किन्तु बहुजन चिन्तक मुद्राराक्षस के अनुसार, डा. राममनोहर लोहिया के साथ रामस्वरूप वर्मा के गहरे मतभेद हो गए थे, जिसके कारण उन्होंने स्वयं ही पार्टी छोड़ दी थी। ये मतभेद जिन मुद्दों पर हुए थे, उसका वर्णन मुद्राराक्षस ने अपने एक लेख में इस प्रकार किया है मेरी भेंट, वर्माजी से दिल्ली में डा. राममनोहर लोहिया के गुरुद्वारा रोड स्थित बंगले में एक दोपहर के समय ठीक तब हुई थी, जब वे रामचरितमानस को लेकर डा. लोहिया से बेहद उत्तेजक बहस कर रहे थे। डा. लोहिया की पसन्दीदा किताब थी रामचरितमानस, वे मनुस्मृति को भी उतना ही ज्यादा पसन्द करते थे। मनुस्मृति और रामचरितमानस पर मैं भी उनसे भिड़ चुका था। वे हिन्दुत्व को भी लगभग गांधी के नजरिए से देखते थे। उन्हें हिन्दुओं में कुछ ऐसा तो जरूर दिखता था, जिसमें सुधर-संशोधन किया जाए, लेकिन हिन्दुत्व को खारिज करना उन्हें पसन्द नहीं था, और रामस्वरूप वर्मा भारतीय समाज में क्रान्तिकारी और बुनियादी परिवर्तन के लिए हिन्दुत्व से मुक्ति को जरूरी मानते थे। डा. लोहिया को हिन्दुत्व को खारिज किया जाना कतई पसन्द नहीं था। इन्हीं मुद्दों पर डा. लोहिया का वर्माजी से भारी विवाद हुआ और यही विवाद डा. लोहिया की पार्टी से वर्माजी के अलगाव का कारण बना। वर्माजी इस मुद्दे पर कितने सही थे, दूसरा बड़ा सुबूत यही है कि लोहिया के रिश्ते तत्कालीन जनसंघ से बहुत गहरे हो गए थे। उनके हिन्दुत्व-प्रेम का ही परिणाम था कि उन्होंने जनसंघ प्रमुख दीनदयाल उपाध्याय के संसदीय सीट के लिए हुए चुनाव में उपाध्याय के पक्ष में प्रचार किया था और उनके महत्वपूर्ण साथी जार्ज फर्नाण्डीज जैसे लोग सीधे भारतीय जनता पार्टी से जुड़ गए थे।’

डा. लोहिया के साथ वर्माजी के इन मतभेदों का समर्थन प्रोफेसर जयराम प्रसाद ने भी किया है। वे अपने लेख में लिखते हैं- ‘रामस्वरूप वर्मा कई मायने में डा. लोहिया से भी आगे थे। डा. लोहिया पंच कन्याओें में क्रान्तिकारिता ढूंढ़ रहे थे और तुलसीदास के रामचरितमानस में भी समन्वयवादी भावना ढूंढ़ रहे थे, उससे हटकर वर्माजी ने कहा कि इस समन्वयवाद में आदर्श है, सच्चाई नहीं।’

वस्तुतः अर्जक संघ की स्थापना ही रामस्वरूप वर्मा को डा. लोहिया और उनकी सोशलिस्ट पार्टी की वैचारिकी से अलग करती थी। वर्माजी जिस सांस्कृतिक विप्लव के लिए कार्य करना चाहते थे, वह कार्य सोशलिस्ट पार्टी में रहकर नहीं हो सकता था। असल में ‘अर्जक संघ’ के उद्देश्य राजनीतिक नहीं सांस्कृतिक थे, और इतने क्रान्तिकारी थे कि उससे लोहिया जैसे समाजवादियों की सहमति नहीं हो सकती थी। भारत में समाजवादी आन्दोलन ब्राह्मणवाद का विरोधी नहीं था। जिस तरह भारतीय कम्युनिस्ट आन्दोलन मार्क्स और लेनिन से अनुप्राणित था, उस तरह समाजवादी आन्दोलन उनसे प्रभावित नहीं था। उनके प्रेरणा-स्रोत अन्य लोग भी थे, जिनमें विवेकानन्द और गांधी के साथ-साथ वेद और तुलसीदास भी थे। इसलिए भारत के समाजवादी नेता वर्ग-संघर्ष के खिलाफ थे। शायद यही कारण था कि वे बहुत जल्दी गांधीवाद की ओर अग्रसर भी हो गए थे, जिनमें आचार्य नरेंन्द्र देव, जयप्रकाश नारायण और डा. राममनोहर लोहिया भी शामिल थे। ‘अर्जक संघ’ के प्रेरणा-स्रोत कार्ल मार्क्स और लेनिन के साथ-साथ ज्योतिबा फुले, डा. आंबेडकर और पेरियार रामास्वामी नायकर जैसे ब्राह्मणवाद-विरोधी नायक भी थे।

महाराज सिंह भारती के शब्दों में ‘अर्जक संघ’ के उद्देश्य ये थे- ‘अर्जक संघ, सबको अपने विचार रखने, कहने, लिखने और बदलने की पूर्ण स्वतन्त्रता है, यह मानकर चलता है। अतः वैज्ञानिक दृष्टिकोण के विपरीत होते हुए भी, अर्जक संघ ईश्वर की भांति आत्मा पर भी कोई बहस नहीं चलाना चाहता। परन्तु पुनर्जन्म को डंके की चोट पर नकारता है, क्योंकि पिछले जन्म को ही लुटेरी हिन्दू संस्कृति ने ब्राह्मणवादी व्यवस्था के द्वारा शोषण का आधार बना रखा है। जब प्रत्येक शोषित अपने पिछले जन्मों के पाप की सजा भोग रहा है, तो वह अपने कष्टों के लिए किसी व्यवस्था या व्यक्ति को कैसे दोषी ठहरा सकता है? पुनर्जन्म लुटेरे हिन्दुओं के हाथ में एक ऐसा हथियार है, जिसके द्वारा लुटेरे दिन-दहाड़े कमेरे हिन्दुओं को लूटते हुए भी कमेरों को उन्हीं की दृष्टि में पिछले जन्म का कार्य बनाकर स्वेच्छा से उनके जीवन को जेलखाने का जीवन व्यतीत करने पर मजबूर कर देता है।’

अर्जक संघ ने तीन बड़े परिवर्तन किए: ब्राह्मणवादी विवाह के स्थान पर अर्जक विवाह, मरने पर होने वाले ब्रह्मभोज के स्थान पर शोक सभा का विकल्प दिया और ब्राह्मणवादी तीज-त्यौहारों के स्थान पर 11 प्रमुख पर्व मनाने पर जोर दिया। ये पर्व हैं: गणतन्त्र दिवस– 26 जनवरी, उल्लास दिवस-1 मार्च, चेतना दिवस– 14 अप्रैल, मानवता दिवस– बुद्धजयन्ती, समता दिवस– 1 जून, अर्जक संघ की स्थापना पर, स्वतन्त्रता दिवस– 15 अगस्त, शहीद दिवस– 5 सितम्बर, जगदेव बाबू के शहादत की याद में,  लाभ दिवस– 1 अक्टूबर, फसल आने की खुशी में, एकता दिवस– 13 अक्टूबर पटेल के जन्मदिन पर,  शक्ति दिवस– 25 नवम्बर, जोतिबा फुले के जन्मदिन पर,  विवेक दिवस– 25 दिसम्बर, रामास्वामी नायकर के निधन पर।

मुद्राराक्षस के अनुसार, वर्माजी पूरी तरह हिन्दुत्व के विरुद्ध अभियान चला रहे थे। उनकी सभा में कोई कंठी पहने, हाथ में रंगीन धगा, कलावा लपेटे या तिलक छाप आदमी उन्हें दिख जाता था, तो वे तुरन्त ललकारते थे कि इन हिन्दू निशानियों को त्याग दो। उनकी सभा में ‘मारेंगे मर जायेंगे, हिन्दू नहीं कहलायेंगे’ का जोरदार नारा लगता था।

सोशलिस्ट पार्टी से अलग होकर वर्मा जी ने 1972 में ‘समाज दल’ का गठन किया। माताप्रसाद के अनुसार- ‘उसी समय बिहार में जगदेव बाबू ने शोषित दल’ का गठन किया था। दोनों नेताओं के सामाजिक-आर्थिक दृष्टिकोण समान थे। इसलिए दोनों दलों का राजनीतिक विलय हो गया। पार्टी का नाम  ‘शोषित समाज दल’ हुआ। इसके अध्यक्ष रामस्वरूप वर्मा हुए और महामन्त्री जगदेव बाबू। बाद में समता दल और रिपब्लिकन पार्टी उत्तर प्रदेश का भी इसमें विलय हो गया।’

अर्जक संघ शारीरिक श्रम को उत्तम मानने वाली सभी जातियों का संगठन था। उनके अनुसार, उत्पादन से जुड़ीं जातियां अर्जक और अनुत्पादक जातियां अनर्जक हैं। रामस्वरूप वर्मा ने अपने अर्जक-विचारों को प्रसारित करने के लिए, ‘अर्जक संघ’ के गठन के अगले वर्ष 1 जून 1969 को साप्ताहिक ‘अर्जक’ अखबार का प्रकाशन आरम्भ किया। इस अखबार के माध्यम से उन्होंने ब्राह्मणवाद के खिलाफ एक जन-युद्ध छेड़ दिया। उस युग के अनेक बहुजन लेखकों को इसने विचारों की अभिव्यक्ति के लिए मंच उपलब्ध कराया। उनकी विचारधरा ने समतामूलक समाज के निर्माण में क्रान्तिकारी भूमिका निभाई, और यह शीघ्र ही हिन्दी क्षेत्र में लोकप्रिय भी हो गया। रामस्वरूप वर्मा के सभी विचारोत्तेजक लेख ‘अर्जक’ में छपे, जिनका बाद में पुस्तकों के रूप में प्रकाशन हुआ। उनकी अर्जक विचारधरा या अर्जकवाद वास्तव में नवजागरण या ज्ञानोदय था, जो ब्राह्मणों की प्रतिक्रान्ति के युग में एक जरूरी आन्दोलन था।

उन्नीस सौ पचास और साठ के दशकों में चन्द्रिकाप्रसाद जिज्ञासु की ब्राह्मणवाद-विरोधी वैचारिकी ने हिन्दी क्षेत्र में जो क्रान्तिकारी दस्तक दी, रामस्वरूप वर्मा उसी की उपज थे। रामस्वरूप वर्मा का जन्म 22 अगस्त 1923 को ग्राम गौरीकरन, जिला कानपुर देहात में हुआ। उनके पिता वंश गोपाल किसान थे। उन्होंने 1949 में इलाहाबाद विश्वविद्यालय से हिन्दी में एम.ए. किया और बाद में कानून की डिग्री अर्जित की। उन्होंने भारतीय प्रशासनिक सेवा की परीक्षा भी उत्तीर्ण की, पर साक्षात्कार में शामिल नहीं हुए। वे सरकारी अधिकारी या वकील बनकर जीवन-यापन करना नहीं चाहते थे, बल्कि वे किसान-मजदूरों की लड़ाई लड़ने के लिए राजनीति में आ गए। वे उस समय के सबसे चर्चित और लोकप्रिय समाजवादी नेता डा. राममनोहर लोहिया के सम्पर्क में आए, और उनकी सोशलिस्ट पार्टी के सदस्य बन गए। वे कई बार उत्तर प्रदेश विधनसभा के सदस्य निर्वाचित हुए, और एक बार 1967 में उत्तर प्रदेश सरकार में वित्त मन्त्री भी हुए।

इसी काल में, जैसा कि माता प्रसाद ने लिखा है,- ‘आगे चलकर उनकी सोच बनी कि सामाजिक और सांस्कृतिक क्रान्ति के बिना सामाजिक और आर्थिक समानता नहीं प्राप्त की जा सकती। इसलिए सामाजिक-आर्थिक क्रान्ति के लिए 1 जून 1968 को उन्होंने ‘अर्जक संघ’ की स्थापना की। इससे समाजवादी, सोशलिस्ट पार्टी के ब्राह्मणवादी तत्व उनके विरोधी हो गए। उनकी मांग थी कि वर्माजी या तो अर्जक संघ में रहें या समाजवादी पार्टी में। इसी विरोध के फलस्वरूप उन्हें 1969 के विधनसभा के चुनाव में पार्टी का सिम्बल देने में जानबूझकर विलम्ब किया गया। इसलिए वे निर्दलीय चुनाव लड़कर विधनसभा में आए।

किन्तु बहुजन चिन्तक मुद्राराक्षस के अनुसार, डा. राममनोहर लोहिया के साथ रामस्वरूप वर्मा के गहरे मतभेद हो गए थे, जिसके कारण उन्होंने स्वयं ही पार्टी छोड़ दी थी। ये मतभेद जिन मुद्दों पर हुए थे, उसका वर्णन मुद्राराक्षस ने अपने एक लेख में इस प्रकार किया है-

‘मेरी भेंट, वर्माजी से दिल्ली में डा. राममनोहर लोहिया के गुरुद्वारा रोड स्थित बंगले में एक दोपहर के समय ठीक तब हुई थी, जब वे रामचरितमानस को लेकर डा. लोहिया से बेहद उत्तेजक बहस कर रहे थे। डा. लोहिया की पसन्दीदा किताब थी रामचरितमानस, वे मनुस्मृति को भी उतना ही ज्यादा पसन्द करते थे। मनुस्मृति और रामचरितमानस पर मैं भी उनसे भिड़ चुका था। वे हिन्दुत्व को भी लगभग गांधी के नजरिए से देखते थे। उन्हें हिन्दुओं में कुछ ऐसा तो जरूर दिखता था, जिसमें सुधर-संशोधन किया जाए, लेकिन हिन्दुत्व को खारिज करना उन्हें पसन्द नहीं था, और रामस्वरूप वर्मा भारतीय समाज में क्रान्तिकारी और बुनियादी परिवर्तन के लिए हिन्दुत्व से मुक्ति को जरूरी मानते थे। डा. लोहिया को हिन्दुत्व को खारिज किया जाना कतई पसन्द नहीं था। इन्हीं मुद्दों पर डा. लोहिया का वर्माजी से भारी विवाद हुआ और यही विवाद डा. लोहिया की पार्टी से वर्माजी के अलगाव का कारण बना। वर्माजी इस मुद्दे पर कितने सही थे, दूसरा बड़ा सुबूत यही है कि लोहिया के रिश्ते तत्कालीन जनसंघ से बहुत गहरे हो गए थे। उनके हिन्दुत्व-प्रेम का ही परिणाम था कि उन्होंने जनसंघ प्रमुख दीनदयाल उपाध्याय के संसदीय सीट के लिए हुए चुनाव में उपाध्याय के पक्ष में प्रचार किया था और उनके महत्वपूर्ण साथी जार्ज फर्नाण्डीज जैसे लोग सीधे भारतीय जनता पार्टी से जुड़ गए थे।’

डा. लोहिया के साथ वर्माजी के इन मतभेदों का समर्थन प्रोफेसर जयराम प्रसाद ने भी किया है। वे अपने लेख में लिखते हैं- ‘रामस्वरूप वर्मा कई मायने में डा. लोहिया से भी आगे थे। डा. लोहिया पंच कन्याओें में क्रान्तिकारिता ढूंढ़ रहे थे और तुलसीदास के रामचरितमानस में भी समन्वयवादी भावना ढूंढ़ रहे थे, उससे हटकर वर्माजी ने कहा कि इस समन्वयवाद में आदर्श है, सच्चाई नहीं।’

वस्तुतः अर्जक संघ की स्थापना ही रामस्वरूप वर्मा को डा. लोहिया और उनकी सोशलिस्ट पार्टी की वैचारिकी से अलग करती थी। वर्माजी जिस सांस्कृतिक विप्लव के लिए कार्य करना चाहते थे, वह कार्य सोशलिस्ट पार्टी में रहकर नहीं हो सकता था। असल में ‘अर्जक संघ’ के उद्देश्य राजनीतिक नहीं सांस्कृतिक थे, और इतने क्रान्तिकारी थे कि उससे लोहिया जैसे समाजवादियों की सहमति नहीं हो सकती थी। भारत में समाजवादी आन्दोलन ब्राह्मणवाद का विरोधी नहीं था। जिस तरह भारतीय कम्युनिस्ट आन्दोलन मार्क्स और लेनिन से अनुप्राणित था, उस तरह समाजवादी आन्दोलन उनसे प्रभावित नहीं था। उनके प्रेरणा-स्रोत अन्य लोग भी थे, जिनमें विवेकानन्द और गांधी के साथ-साथ वेद और तुलसीदास भी थे। इसलिए भारत के समाजवादी नेता वर्ग-संघर्ष के खिलाफ थे। शायद यही कारण था कि वे बहुत जल्दी गांधीवाद की ओर अग्रसर भी हो गए थे, जिनमें आचार्य नरेंन्द्र देव, जयप्रकाश नारायण और डा. राममनोहर लोहिया भी शामिल थे। ‘अर्जक संघ’ के प्रेरणा-स्रोत कार्ल मार्क्स और लेनिन के साथ-साथ ज्योतिबा फुले, डा. आंबेडकर और पेरियार रामास्वामी नायकर जैसे ब्राह्मणवाद-विरोधी नायक भी थे।

महाराज सिंह भारती के शब्दों में ‘अर्जक संघ’ के उद्देश्य ये थे- ‘अर्जक संघ, सबको अपने विचार रखने, कहने, लिखने और बदलने की पूर्ण स्वतन्त्रता है, यह मानकर चलता है। अतः वैज्ञानिक दृष्टिकोण के विपरीत होते हुए भी, अर्जक संघ ईश्वर की भांति आत्मा पर भी कोई बहस नहीं चलाना चाहता। परन्तु पुनर्जन्म को डंके की चोट पर नकारता है, क्योंकि पिछले जन्म को ही लुटेरी हिन्दू संस्कृति ने ब्राह्मणवादी व्यवस्था के द्वारा शोषण का आधार बना रखा है। जब प्रत्येक शोषित अपने पिछले जन्मों के पाप की सजा भोग रहा है, तो वह अपने कष्टों के लिए किसी व्यवस्था या व्यक्ति को कैसे दोषी ठहरा सकता है? पुनर्जन्म लुटेरे हिन्दुओं के हाथ में एक ऐसा हथियार है, जिसके द्वारा लुटेरे दिन-दहाड़े कमेरे हिन्दुओं को लूटते हुए भी कमेरों को उन्हीं की दृष्टि में पिछले जन्म का कार्य बनाकर स्वेच्छा से उनके जीवन को जेलखाने का जीवन व्यतीत करने पर मजबूर कर देता है।’

अर्जक संघ ने तीन बड़े परिवर्तन किए: ब्राह्मणवादी विवाह के स्थान पर अर्जक विवाह, मरने पर होने वाले ब्रह्मभोज के स्थान पर शोक सभा का विकल्प दिया और ब्राह्मणवादी तीज-त्यौहारों के स्थान पर 11 प्रमुख पर्व मनाने पर जोर दिया। ये पर्व हैं: गणतन्त्र दिवस– 26 जनवरी, उल्लास दिवस-1 मार्च, चेतना दिवस– 14 अप्रैल, मानवता दिवस– बुद्धजयन्ती, समता दिवस– 1 जून, अर्जक संघ की स्थापना पर, स्वतन्त्रता दिवस– 15 अगस्त, शहीद दिवस– 5 सितम्बर, जगदेव बाबू के शहादत की याद में,  लाभ दिवस– 1 अक्टूबर, फसल आने की खुशी में, एकता दिवस– 13 अक्टूबर पटेल के जन्मदिन पर,  शक्ति दिवस– 25 नवम्बर, जोतिबा फुले के जन्मदिन पर,  विवेक दिवस– 25 दिसम्बर, रामास्वामी नायकर के निधन पर।

मुद्राराक्षस के अनुसार, वर्माजी पूरी तरह हिन्दुत्व के विरुद्ध अभियान चला रहे थे। उनकी सभा में कोई कंठी पहने, हाथ में रंगीन धगा, कलावा लपेटे या तिलक छाप आदमी उन्हें दिख जाता था, तो वे तुरन्त ललकारते थे कि इन हिन्दू निशानियों को त्याग दो। उनकी सभा में ‘मारेंगे मर जायेंगे, हिन्दू नहीं कहलायेंगे’ का जोरदार नारा लगता था।

सोशलिस्ट पार्टी से अलग होकर वर्मा जी ने 1972 में ‘समाज दल’ का गठन किया। माताप्रसाद के अनुसार- ‘उसी समय बिहार में जगदेव बाबू ने शोषित दल’ का गठन किया था। दोनों नेताओं के सामाजिक-आर्थिक दृष्टिकोण समान थे। इसलिए दोनों दलों का राजनीतिक विलय हो गया। पार्टी का नाम  ‘शोषित समाज दल’ हुआ। इसके अध्यक्ष रामस्वरूप वर्मा हुए और महामन्त्री जगदेव बाबू। बाद में समता दल और रिपब्लिकन पार्टी उत्तर प्रदेश का भी इसमें विलय हो गया।’

अर्जक संघ शारीरिक श्रम को उत्तम मानने वाली सभी जातियों का संगठन था। उनके अनुसार, उत्पादन से जुड़ीं जातियां अर्जक और अनुत्पादक जातियां अनर्जक हैं। रामस्वरूप वर्मा ने अपने अर्जक-विचारों को प्रसारित करने के लिए, ‘अर्जक संघ’ के गठन के अगले वर्ष 1 जून 1969 को साप्ताहिक ‘अर्जक’ अखबार का प्रकाशन आरम्भ किया। इस अखबार के माध्यम से उन्होंने ब्राह्मणवाद के खिलाफ एक जन-युद्ध छेड़ दिया। उस युग के अनेक बहुजन लेखकों को इसने विचारों की अभिव्यक्ति के लिए मंच उपलब्ध कराया। उनकी विचारधरा ने समतामूलक समाज के निर्माण में क्रान्तिकारी भूमिका निभाई, और यह शीघ्र ही हिन्दी क्षेत्र में लोकप्रिय भी हो गया। रामस्वरूप वर्मा के सभी विचारोत्तेजक लेख ‘अर्जक’ में छपे, जिनका बाद में पुस्तकों के रूप में प्रकाशन हुआ। उनकी अर्जक विचारधरा या अर्जकवाद वास्तव में नवजागरण या ज्ञानोदय था, जो ब्राह्मणों की प्रतिक्रान्ति के युग में एक जरूरी आन्दोलन था।

ब्राह्मणों का पुनर्जागरण वास्तव में मुस्लिम काल में ही शुरु हो गया था, जो ब्रिटिश काल में भी जारी रहा, और आज भी जारी है। भारत में ब्राह्मण लेखकों ने जिसे नवजागरण कहा, वह हिन्दुत्व का ही पुनर्जागरण था। नवजागरण का काम भारत में बहुजन नायकों ने किया, जिन्होंने सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक जीवन में नए मूल्यों का निर्धरण किया। रामस्वरूप वर्मा ने अर्जक संघ के माध्यम से इस ज्ञानोदय को नए तर्कों से आगे बढ़ाया।


अर्जक संघ के प्रस्ताव

अर्जक संघ की उत्तर प्रदेश शाखा के तीन महासम्मेलन हुए। पहला सम्मेलन 1971 में लखनऊ में,  दूसरा 1972 में कानपुर में और तीसरा 1979 में इलाहाबाद में। इन सम्मेलनों में कुल मिलाकर आठ प्रस्ताव पास किए गए थे। ये सभी प्रस्ताव धर्मिक और सांस्कृतिक थे। इनमें चार प्रस्ताव अत्यन्त क्रान्तिकारी थे। पहला यह कि अर्जक संघ इन्सान-इन्सान की बराबरी का सिद्धांत स्वीकार करता है। वह मानता है कि देश में फैली गैर-बराबरी का मूल कारण ब्राह्मणवाद की नींव की ईंटें, पुनर्जन्म और भाग्यवाद हैं। उसकी दृष्टि में जाति-पांति, छुआछूत, ऊंच-नीच और गरीब-अमीर की भावनाएं इसी ब्राह्मणवाद की देन हैं। प्रस्ताव के अनुसार, ‘आज सारी दुनिया के सामने यह सच्चाई उभर कर आ गई है कि जाति-पांति, ऊंच-नीच, छुआछूत और अमीर-गरीब भाग्य के कारण नहीं, बल्कि तिकड़मी समाज-शत्रुओं की देन है।

सम्मेलन इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि पदार्थ से निर्मित इस विश्व में पुनर्जन्म सम्भव नहीं, जैसे सारी नदियां समुद्र में मिलकर अपना अस्तित्व समाप्त कर देती हैं, वैसे ही सारे जीव मरने के बाद पदार्थ में विलीन हो जाते हैं, जिससे उनके दुबारा पैदा होने का प्रश्न ही नहीं उठता। अतः जब पुनर्जन्म ही नहीं, तो भाग्य कहां से आया?’ इसलिए सम्मेलन में पुनर्जन्म के मिथ्या सिद्धान्त को पोषण करने वाले संस्कार, जैसे पालागन या पैर छूना, कथा- भागवत, पाठ, तीर्थ, जाप आदि कर्मों को समाप्त करने का भी संकल्प लिया गया।

दूसरे प्रस्ताव में ‘बराबर बैठो और बराबर बैठाओ’ का संकल्प लिया गया। इसके अन्तर्गत कहा गया कि ब्राह्मणवाद में पाखाना खाने वाली गाय पवित्र है और भंगी अपवित्र है। इन्सान का कहीं ऐसा अपमान नहीं हुआ, जैसा भारत में देखा जाता है। इसी प्रकार निम्न जातियों का भी नाम बिगाड़कर पुकार कर उनका अपमान किया जाता है। इस असभ्यतापूर्ण गैर-बराबरी के व्यवहार को समाप्त जरूरी है।

तीसरा संकल्प में कहा गया, ‘जिससे मानव समाज कायम रहे और तरक्की करे, वही धर्म है।’ उसके अनुसार, मानव-संहार का समर्थन करने वाला कोई भी सिद्धान्त धर्म नहीं हो सकता, और जो मानव-मानव की बराबरी के सिद्धान्त को न स्वीकार करे, वह भी धर्म नहीं हो सकता। प्रस्ताव में स्वीकार किया गया कि 18 वर्ष की अवस्था प्राप्त प्रत्येक व्यक्ति को अपना धर्म छोड़ने और दूसरा धर्म ग्रहण करने की स्वतन्त्रता होनी चाहिए। सम्मेलन ने यह भी मांग की कि केन्द्र सरकार को अविलम्ब धर्म ग्रहण विधेयक लाकर उसे कानून का रूप देना चाहिए।

चौथे प्रस्ताव में उत्तर प्रदेश सरकार के स्कूलों में पढ़ाई जाने वाली ‘हमारे पूर्वज’ और अन्य पाठ्य पुस्तकों को कोर्स से हटाने की मांग की गई थी, जिसमें पुनर्जन्म, भाग्यवाद, जाति-पांति और ऊंच-नीच की शिक्षा दी जा रही थी। सम्मेलन की राय में ब्राह्मणवाद की यह शिक्षा भारत के संविधन के विरुद्ध थी। इसमें शिक्षा को केन्द्रीय विषय के रूप में रखने और समान शिक्षा पद्धति लागू करने की मांग थी।

हिन्दू साम्प्रदायिकता की तह में जाने की पहल

डा. आंबेडकर ने 1927 के ‘मूक नायक’ में अग्रलेख लिखा था: मूल खोजो विवाद मिटेगा। इस लेख में उन्होंने समस्या के मूल को खोजने पर जोर दिया था। इसी का अनुसरण करते हुए रामस्वरूप वर्मा ने ‘समस्याओं के तह तक जाने की पहल’ शीर्षक से एक लम्बा और महत्वपूर्ण लेख लिखा। हालांकि यह उनका राजनीतिक लेख है, जो कांग्रेस की ब्राह्मणवादी संस्कृति को उघाड़ता है, परन्तु इसमें समस्या के मूल को जिस बेबाकी से खोजा गया है, वह हमें आंबेडकर के समाजवादी चिन्तन की याद दिलाता है। उन्होंने लेख के आरम्भ में ही भारत की राजनीति में ब्राह्मणवाद को स्थापित करने के लिए गांधी और कांग्रेस पार्टी को उत्तरदायी माना है। उन्होंने साफ-साफ कहा-

‘मोहनदास कर्मचन्द गांधी की प्रार्थना सभाएं, वैष्णव धर्म और रामराज्य के गुणगान करने वाले गीतों से आरम्भ होती थी। कांग्रेस में जब से गाधीजी ने वैष्णव धर्म का प्रचार आरम्भ किया, मुहम्मद अली जिन्ना आदि अल्पसंख्यक नेता और रामास्वामी नायकर जैसे समाज-सुधारक तथा पदार्थवादी दर्शन को मानने वाले भगत सिंह जैसे क्रान्तिकारी नेता कांग्रेस से दूर होते गए। ब्राह्मणवादियों की बड़ी परेशानी अल्पसंख्यक तथा दलित आदिवासी की संख्या रही है, जिन्हें वे म्लेच्छ और अछूत समझते हैं। 30 प्रतिशत मुसलमान और 24 प्रतिशत दलित-आदिवासी मिलकर बहुमत हो जाता है। ब्राह्मणवाद को फलने-फूलने के लिए शासन-प्रशासन पर अधिकार बनाए रखना आवश्यक है। 1939 के प्रदेश चुनावों में मुस्लिम लीग से समझौता करके कांग्रेस ने चुनाव लड़ा था, पर सरकार बनाने में मुस्लिम लीग को साझा नहीं किया गया था। फलस्वरूप पाकिस्तान की मांग सामने आई। पाकिस्तान का भूत मुसलमानों के मन में समा चुका था। पाकिस्तान भी न बने और मुसलमान भी शान्त रहें, इसके लिए जिन्ना ने अखण्ड भारत का प्रथम प्रधानमन्त्री बनना चाहा था। परन्तु पंडित जवाहरलाल नेहरू ने यह कहकर कांग्रेस की ओर से इन्कार कर दिया कि हिन्दू किसी मुस्लिम को प्रधनमन्त्री सहन नहीं करेगा। फलतः, पाकिस्तान बन गया, और वैष्णव धर्म या ब्राह्मणवाद के पनपने का रास्ता खुल गया।’

गांधी और ब्राह्मणों की साजिश का इतना बेबाक पर्दाफाश जयप्रकाश नारायण और डा. लोहिया जैसे समाजवादियों ने कभी नहीं किया। वर्माजी ने हिन्दू साम्प्रदायिकता की व्याख्या करते हुए आगे कहा, हिन्दू साम्प्रदायिकता का नेतृत्व सदैव ब्राह्मणों के हाथों संचालित हुआ है। ब्राह्मण पक्ष का हो, या विपक्ष का, इस खेल को मिलकर खेलता है। विपक्ष के ब्राह्मण, गैर ब्राह्मण हिन्दुओं को लेकर हिन्दू साम्प्रदायिकता का प्रचार करते हैं और ब्राह्मणों का बहुमत काग्रेस में रहकर धर्मनिरपेक्षता की बात करता है। इसलिए हिन्दू साम्प्रदायिकता से डरकर अल्पसंख्यक वर्ग कांग्रेस के साथ रहता है। आज कांग्रेस के स्थान पर अगर आप भारतीय जनता पार्टी को रख लें, तो देखेंगे कि कांग्रेस के सारे ब्राह्मण भाजपाई बनकर हिन्दुत्ववादी हो गए हैं, और मुसलमान उनसे भयानक रूप से आतंकित हैं। वर्माजी ने सही पकड़ा था।

‘जितना भी देश साम्प्रदायिकता की आग में फंसता जायेगा, ब्राह्मणवाद शक्तिशाली होता जायेगा। शासन और प्रशासन के लिए 95 प्रतिशत ब्राह्मण कांग्रेस में रहकर साम्प्रदायिकता को देश के लिए घातक कहता रहेगा, जैसा कि आज भाजपा कहती है परन्तु सरकारी भूमि पर हजारों मन्दिर बनवा देना, संस्कृत भाषा को पढ़ाना अनिवार्य करके आकाशवाणी से समाचार तक संस्कृत में सुनाने लगना,  सरकारी खर्च पर ब्राह्मण उद्घाटन, भूमि-पूजा आदि कर्मकाण्ड करेंगे और 5 प्रतिशत ब्राह्मण हिन्दू साम्प्रदायिकता का नेतृत्व करते हुए गैर-ब्राह्मण हिन्दुओं को संगठित करेगा। ब्राह्मण का सत्ता और प्रशासन पर अधिकार भी बना रहा और हिन्दू साम्प्रदायिकता का नेतृत्व तो धर्मिक कारणों से कोई हिन्दू ले ही नहीं सकता।’

वर्माजी ने ब्राह्मण के खेल को अच्छी तरह समझ लिया था। इसलिए उन्होंने सटीक विश्लेषण किया कि धर्मनिरपेक्षता और साम्प्रदायिकता दोनों का नेतृत्व ब्राह्मण के हाथ में है। उन्होंने कहा कि साम्प्रदायिकता फैलाने वाली कोई भी पार्टी हो, बिना ब्राह्मण के सफल नहीं हो सकती। उनके अनुसार हिन्दू साम्प्रदायिकता का लाभ ब्राह्मणों को होता है, और हानि गैर-ब्राह्मण हिन्दुओं को होती है।


कांग्रेस का रामराज्य

गांधी भारत में रामराज्य लाना चाहते थे। और, कांग्रेस ने भारत के स्वतन्त्र होते ही नेहरू को भारत का पहला प्रधनमन्त्री बनाकर और राज्यों के मुख्यमंत्री पदों पर ब्राह्मणों की प्रथम नियुक्त करके रामराज्य की शुरूआत कर दी। रामराज्य क्या है और ब्राह्मण इसे क्यों पसन्द करते हैं? इस विषय पर रामस्वरूप वर्मा का चिन्तन अद्भुत है। उनका यह कथन देखिए-रामायण की कथा कोई इतिहास नहीं है, वरन एक काल्पनिक साहित्य है। यदि रामायण इतिहास होती, तो रामायण के आर्थिक पक्ष भी उसमें लिखे होने चाहिए थे। राम और उसकी जाति के लोग, सभी ब्राह्मण और ऋषि मुनि कोई उत्पादन और निर्माण अपने श्रम से नहीं करते थे,  फिर भी राम सभी ब्राह्मण और ऋषि मुनियों की सेवा में अपार धन व्यय करता था। रामराज्य में कोई खनिज नहीं निकाला जाता था, फिर भी परिवार के सभी लोग सोने के आभूषण और मुकुटों से लदे रहते हैं। पक्की सड़क नहीं, नदियों पर पुल नहीं, कोई कल-कारखाना नहीं, बांध, नहर या नलकूप नहीं। असिंचिंत खेती से किसान ने जो थोड़ा बहुत पैदा कर लिया, पहले राजा राम के कर्मचारी बटाई करके ले गए। फिर स्थानीय ठाकुर, ब्राह्मण को दिया गया। जो बचा, उसमें बढ़ई, कुम्हार, बुनकर आदि प्रजाजन, भूमिहीन मजदूर और स्वयं किसान को अपना जीवन बिताना पड़ता था। भयानक शोषण पर आधरित राजतन्त्र-प्रणाली ही रामराज्य की कामना है, परन्तु उसकी चर्चा पंडित वाल्मीकि से लेकर पंडित तुलसीदास तक, किसी ने करना उचित नहीं समझा।’

वर्मा जी के अनुसार रामराज्य को आदर्श राज्य इसलिए कहा गया, क्योंकि उसमें साधु-सन्त, ब्राह्मण और क्षत्रिय सुखी और आदरणीय थे। वैश्यों के बारे में वर्माजी का मत था कि ब्राह्मणवाद ने वैश्य को बड़ी ही दयनीय स्थिति में रखा है। वह ब्राह्मणों के लिए दुधरू गाय है, उसी के धन से ब्राह्मणों का रामराज्य चलता है। ‘इस प्रकार वैश्य को जितना धन अपने लिए कमाना पड़ता है, उससे कई गुना अधिक वह ब्राह्मणों और क्षत्रियों  के लिए कमाता है।’ इसलिए उसे शोषण के हर हथकंडे अपनाने पड़ते हैं। वर्माजी के मतानुसार, वैश्य की मानसिकता भी घोर ब्राह्मणवादी है, इसीलिए वह किसानों और कारीगरों का भयानक शोषण करता है। वह अपने अवैध धन का उपयोग मन्दिर बनवाने और यज्ञ कराने में करता है। उनका मत है कि वैश्य की यही ब्राह्मणवादी मानसिकता भारत की अर्थव्यवस्था को चैपट किए हुए है। इसे हम वर्माजी के लेखन में आगे भी देखेंगे।

वर्माजी की प्रश्नोत्तरी

रामस्वरूप वर्मा ने सामाजिक परिवर्तन और समता-मूलक समाज के निर्माण के लिए कई विचारशील पुस्तकों की रचना की। इनमें ‘क्रान्ति क्यों और कैसे’, ‘ब्राह्मण-महिमा: क्यों और कैसे’, मानववाद बनाम ब्राह्मणवाद’, ‘मनुस्मृति: राष्ट्र का कलंक’, ‘निरादर कैसे मिटे’, ‘आत्मा, पुनर्जन्म मिथ्या: मानव समता क्या, क्यों और कैसे’, ‘महामना डा. बी. आर. आंबेडकर साहित्य की जब्ती और बहाली’, ‘अछूतों की समस्या और समाधन’ उनकी महत्वपूर्ण कृतियां हैं। इसके अतिरिक्त उन्होंने एक और महत्वपूर्ण ग्रन्थ ‘मानववादी प्रश्नोत्तरी’ शीर्षक से लिखा, जो दयानन्द के ‘सत्यार्थ प्रकाश और ‘जोतिबा फुले के ‘गुलामगिरी’ ग्रन्थ के स्तर का है। अगर वर्माजी अन्य पुस्तकें न भी लिखते, तो भी उनका केवल ‘मानववादी प्रश्नोत्तरी’ ग्रन्थ ही बहुजनों में क्रान्ति-चेतना लाने में काफी था। इसमें उन्होंने उसी शैली में स्वयं ही सवाल किए हैं और स्वयं ही उनके उत्तर दिए हैं, जिस शैली में स्वामी दयानन्द ने सत्यार्थप्रकाश में दिए हैं। इस ग्रन्थ के प्राक्कथन में उन्होंने लिखा है, ‘प्रश्नोत्तर के द्वारा ब्राह्मणवाद में जकड़े लोगों के दिमाग का धुंध हटेगा और उन्हें मानववाद का प्रशस्त मार्ग स्पष्ट दिखेगा, ऐसी आशा इस मानववादी प्रश्नोत्तरी से करना अनुचित न होगा। जीवन के चारों क्षेत्रों ; सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक में व्याप्त ब्राह्मणवाद को त्यागकर, यदि भारत के निराश्रित व दरिद्र लोगों ने मानववाद का रास्ता अपनाया, तो निश्चय ही उन्हें निरादर व दरिद्रता से छुटकारा मिलेगा, और मैं इस परिश्रम को सार्थक समझूंगा।’

मानववाद क्या है? मानव-समता से क्या तात्पर्य है? मानव-मन की आवश्यकताएं क्या हैं? पदार्थ जड़ होता है या चैतन्य? जीव किसे कहते हैं? जीव की उत्पत्ति कब और कैसे हुई? आदि बहुत से प्रश्न हैं, जिनके उत्तर वर्माजी ने दिए हैं। कुछ महत्वपूर्ण प्रश्नोत्तर इस प्रकार हैं-

प्रश्न- समाजवाद किसे कहते हैं?

उत्तर- एक ऐसी आर्थिक व्यवस्था की रचना की विचारधरा, जिससे कोई किसी के श्रम का शोषण न कर सके, समाजवाद कही जाती है।

प्रश्न- क्या आत्मा का पुनर्जन्म होता है?

उत्तर- आत्मा जैसी कोई चीज सृष्टि में नहीं है। अतः जो नहीं है, उसके पुनर्जन्म का प्रश्न ही नहीं उठता।

प्रश्न- पुनर्जन्म की घटनाएं होती सुनी गई हैं, तो क्या वे भी असत्य हैं? उत्तर- पुनर्जन्म की सारी कहानियां गढ़ी गई होती हैं। इनमें सत्य का धेला भी नहीं है। अव्वल तो ये भारत में ही घटती और सुनी जाती हैं, दुनिया के अन्य देशों में नहीं। दूसरे यह असम्भव है, क्योंकि दुनिया के किसी बच्चे को यह याद नहीं है कि मां के पेट में वह किस प्रकार महसूस करता था। आज तक इसके बारे में किसी ने भी नहीं बताया, तो फिर जब गर्भकाल की बात का ही पता नहीं है, तब उसके पूर्व की बात कहां और कैसे याद रहेगी?

प्रश्न- ब्रह्म क्या है?

उत्तर- ब्रह्म का अर्थ है सबसे बड़ा। यह तौल-नाप का पर्यायवाची विश्लेषण है। जैसे ब्रह्म ज्ञानी सबसे बड़ा ज्ञानी। ब्रह्म का यही तात्पर्य है।

प्रश्न- यह सृष्टि ईश्वर ने बनाई, क्या यह सच है?

उत्तर- नहीं। यदि सृष्टि किसी एक व्यक्ति ने बनाई होती, तो उसमें इतनी विविधता न होती, जैसे एक लोहार, बढ़ई या कुम्हार जो भी चीजें बनाता है, उसमें उसकी दक्षता अवश्य दिखाई पड़ती है और उस दक्षता में दिन-रात वृद्धि होती रहती है, जब तक कि उसकी बनाने की शक्ति क्षीण नहीं होने लगती। इस धरती पर हजारों लोग लंगड़े, अंधे काने, कुबड़े, लूले आदि है। यदि ये सब एक व्यक्ति के बनाए होते, सब सुन्दर होते, और विकृत न होते। अच्छे लोहार से खराब हंसिए नहीं बनते, और न अच्छे बढ़ई से खराब खूंटा बनता है। इसलिए सृष्टि किसी ईश्वर की बनाई हुई नहीं है। यह पदार्थ के स्वभाव संघात का परिणाम है।

प्रश्न- यदि सृष्टि ईश्वर ने नहीं बनाई, और वह इसे नहीं चलाता, तो यह चल कैसे रही है?

उत्तर- सृष्टि का कारण पदार्थ की गतिशीलता है। चूंकी पदार्थ स्वयमेव गतिशील है, अतः चल रही है।

प्रश्न- जब आत्मा नहीं है, तो भूत-प्रेत कहां से आते हैं?

उत्तर- आज तक किसी प्रेतात्मा के होने का प्रमाण नहीं मिला है। कुछ ओझाई आदि को पनपाने के लिए कुछ युक्तियां तैयार कर लेते हैं, जिन्हें अज्ञानी लोग भूत-प्रेत की करनी समझते हैं।…प्रेतात्मा सम्बन्धी जितनी कहानियां हैं, वे पूरे तौर से मिथ्या होती हैं, क्योंकि सृष्टि में पदार्थ से भिन्न आत्मा जैसी किसी वस्तु की उपस्थिति सम्भव नहीं।

प्रश्न- जब आत्मा नहीं, तो स्वर्ग-नरक में कौन जाता है?

उत्तर- आज तक किसी मानव ने स्वर्ग-नरक नहीं देखा है। यह अज्ञानी लोगों को भय दिखाने के लिए मानवकृत

कल्पना है। वास्तव में स्वर्ग-नरक सृष्टि में कहीं स्थित नहीं है। दूसरे, जब आत्मा नहीं, तो स्वर्ग-नरक का अस्तित्व स्वयं निरर्थक हो जाता है।

इन कुछ प्रश्नों के अलावा और भी बहुत से प्रश्नों के तार्किक उत्तर ‘मानववादी प्रश्नोत्तरी’ में दिए गए हैं। उसमें अन्तिम महत्वपूर्ण प्रश्न है: ‘क्या क्रान्ति बिना हिंसा के सफल नहीं होती?’ उत्तर में वर्माजी का मत है: ‘यह विचार अज्ञान पर आधरित है। वास्तव में क्रान्ति अहिंसा से ही होती है, क्योंकि यह मन का विषय है।’

क्रान्ति क्यों और कैसे?

लेकिन क्रान्ति क्या है? और वह कैसे आयेगी? इसका वर्णन वर्माजी ने अपनी सर्वाधिक चर्चित पुस्तक ‘क्रान्ति क्यों और कैसे?’ में किया है। उन्होंने इस किताब में इसे अच्छे से समझाया है। उनके अनुसार, लोग क्रान्ति का प्रयोग अनाप-शनाप यन्त्रावत करते हैं, लेकिन वे क्रान्ति का मतलब नहीं जानते। उनके अनुसार, जो दल ब्राह्मणवादी संस्कृति और वर्णव्यवस्था को मानते हैं, वे भी ‘इंकलाब जिन्दाबाद’ या ‘क्रान्ति अमर रहे’ का नारा लगाते हैं। वे पूछते हैं, आखिर, क्रान्ति या इंकलाब का अर्थ क्या है? वे स्वयं ही उत्तर देते हैं: ‘जीवन के पूर्व-निर्धारित मूल्यों का मानव हित में पुनर्निर्धारण का नाम क्रान्ति है।’ उन्होंने दूसरे शब्दों में कहा कि जब पहले से चले आते जीवन-मूल्य बहुजनों के हित में न होकर, अल्प जनों के हित में हो जाते हैं, तब बहुजन-हिताय और बहुजन-सुखाय की पृष्भूमि में उनका फिर से मूल्यांकन करना पड़ता है। यह मूल्यांकन ही क्रान्ति की संज्ञा पाता है। वे आगे इतिहासकार ट्यनवी की भाषा में समझाते हैं: ‘पतझड़ की निष्क्रियता से हेमन्त की पीड़ा और उसके पश्चात बसन्त का उत्साह।’ उनकी दृष्टि में यह क्रान्ति की मनोहारी परिभाषा है, अर्थात्, ‘निष्क्रिय पुरातन का विनाश और सक्रिय नूतन का विकास।’

जीवन के पूर्वनिर्धरित मूल्य क्या हैं? वर्माजी बताते हैं: ‘ब्राह्मणवादी मूल्यों में जन्मा व्यक्ति ऊंच या नीच जाति में जन्म लेता है और मुसलमान तथा ईसाइयों के यहां जन्मा व्यक्ति इन्सान के रूप में पैदा होता है। अतः इस विषय में सामाजिक मूल्यों का पुनः निर्धरण करना होगा। क्या कोई व्यक्ति पैदा होते ही ऊंच या नीच हो जाता है? स्पष्ट है कि ब्राह्मणवादी सामाजिक मूल्य विषमतापरक हैं, उसमें इन्सान की परख का प्रश्न ही नहीं उठता। अतः जीवन का यह सामाजिक मूल्य फिर से तय करने योग्य है। पुनः निर्धरित सामाजिक मूल्य इस तरह हो सकता है कि मानव-मानव बराबर हैं।  इसी तरह से सारे सामाजिक मूल्यों का पुनः निर्धरण करने में ही सामाजिक क्रान्ति निहित है।’

आर्थिक क्रान्ति क्या हैं? वर्माजी कहते हैं, गरीबी-अमीरी दोनों ईश्वर की देन हैं, यह स्थापित किया गया है। इस पर फिर से सोचना होगा। क्या वास्तव में गरीब और अमीर ईश्वर ने बनाए हैं? वर्माजी कहते हैं, नहीं, इसका कारण दुव्र्यवस्था और आर्थिक शोषण है। उनके अनुसार, ‘उत्पादन के क्षेत्रों पर अधिकार किसी व्यक्ति का होने पर ही गरीबी और अमीरी की खाई बढ़ती है। भाग्य के नाम पर इस कब्जे को कायम रखने में देश की प्रगति कुगति की ओर जा रही है।’ अतः इन मूल्यों को फिर से तय करना होगा। यही आर्थिक क्रान्ति है।

सांस्कृतिक क्रान्ति के लिए, वर्माजी का जोर ब्राह्मणवादी संस्कृति के विनाश पर है। इसके लिए, उनके अनुसार, अर्जक; मानववादी संस्कृति का विकास जरूरी है। वे कहते हैं कि जब तक समतामूलक अर्जक संस्कृति का उदय और पुनर्जन्म तथा भाग्यवाद पर आधरित विषमतामूलक ब्राह्मणवादी संस्कृति का विनाश नहीं होगा, तब तक सांस्कृतिक क्रान्ति सम्भव नहीं। इसलिए उन्होंने कहा कि उनके अर्जक संघ के प्रयासों से अर्जक संस्कृति तर्क-युग की स्थापना कर रही है। अर्जक युवकों को अपने शोषण का ज्ञान हो गया है, और उन्होंने उससे मुक्त होने के लिए जिहाद छेड़ दी है। वैज्ञानिक ज्ञान और जनतन्त्र उनकी आखें खोल रहा है और वे अपनी अपार शक्ति का अनुभव करने लगे हैं। उनका कहना है कि जिस तीव्रता से वैज्ञानिक ज्ञान बढ़ेगा, उतनी ही तीव्रता से ब्राह्मणवादी संस्कृति का नाश होगा।

राजनीतिक क्रान्ति क्या है? वर्माजी कहते हैं कि राजनीति में भी जीवन के पूर्वनिर्धरित मूल्यों का ही बोलबाला है। इसलिए ‘जनतन्त्र का आगमन तो हुआ, किन्तु पूर्वनिर्धारित राजतन्त्रीय मूल्यों के पुनर्निर्धरण के अभाव में जनतन्त्र मुरझा गया है, और राजतन्त्र की एक व्यापक कुलीन तन्त्रीय प्रणाली सारे देश की प्रशासनिक परम्परा में छाई हुई है।’ इस तरह ‘वर्ण और वर्ग से कुलीन लोग अब सारे शासन व प्रशासन पर छाए हुए हैं, और जनतांत्रिक मूल्यों का विकास खटाई में पड़ गया है।’ इस राजनीतिक मूल्य को पिफर से तय करने से ही राजनीतिक क्रान्ति होगी।

वर्माजी की दृष्टि में क्रान्ति और परिवर्तन दोनों अलग-अलग हैं। उनके अनुसार क्रान्ति सम्पूर्ण जीवन को लेकर चलती है, और यह मानसिक होती है, जबकि परिवर्तन पाथर््िाव होता है और वह सम्पूर्ण जीवन को लेकर नहीं चलता। उनका मत था कि क्रान्तिविहीन परिवर्तन निरर्थक और निस्सार हुआ करता है। यही कारण है कि देश में सरकारें बदलने के बाद भी क्रान्ति नहीं होती। उन्होंने कहा कि यदि लोगों ने क्रान्ति का मार्ग अपनाया, तो इससे देश का सारा नक्शा बदल जायेगा और ‘आदमी को भी इन्सा होना मयस्सर हो जायेगा।


ब्राह्मणवाद का प्रचारक रामचरितमानस

1974 में रामचरितमानस के चार सौ साल पूरे होने के अवसर पर तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने धूमधाम से ‘मानस-चतुष्शती’ का आयोजन किया था। इस आयोजन की तैयारी 1970 में हुई थी। तत्कालीन प्रधानमन्त्री श्रीमती इन्दिरा गांधी ने इस आयोजन के लिए एक करोड़ रुपए का बजट आवंटित किया और रामचरितमानस का अधिकाधिक प्रचार करने की दृष्टि से उसकी चार करोड़ प्रतियां जनता में मुफ्त बांटने की घोषणा की। रामस्वरूप वर्मा ने अर्जक संघ की ओर से इसका भारी विरोध किया। उन्होंने न केवल इसके विरोध में तत्कालीन प्रधनमन्त्री इन्दिरा गांधी और राष्ट्रपति वी. वी. गिरि को पत्र लिखे, बल्कि ‘ब्राह्मण महिमा: क्यों और कैसे’ शीर्षक से एक किताब भी लिखी। इस पुस्तक की प्रस्तावना में वर्माजी ने लिखा कि करोड़ों अर्जकों की गरीबी दूर करने के लिए प्रधनमन्त्री के पास कोई कार्यक्रम नहीं है, लेकिन ब्राह्मणशाही को कायम रखने के लिए अर्जकों की गाढ़ी कमाई से एक करोड़ रुपया खर्च किया जा रहा है। उन्होंने कहा कि वैज्ञानिक ज्ञान के विकास के कारण ब्राह्मणवाद का नाश होते देखकर ही ब्राह्मण वर्ग ब्राह्मणवाद के पोषक ग्रन्थ की चतुष्शती मनाने का उपक्रम कर रहा है। उन्होंने तीखे शब्दों में कहा कि ब्राह्मणवाद के प्रचारकों के हाथ में ताकत देना बन्दर के हाथ में मशाल देने से कम खतरनाक नहीं है।


इस पुस्तक में वे चार पत्र भी शामिल हैं, जो वर्माजी के द्वारा मानस चतुष्शती के विरोध में तत्कालीन प्रधनमन्त्री श्रीमती गांधी और राष्ट्रपति वी. वी. गिरि को भेजे गए थे। पहला पत्र 18 जून 1970 को श्री वी. वी. गिरि को भेजा गया। इसके मजमून के कुछ खास अंश इस प्रकार थे-

मान्यवर,

तुलसी चतुष्शती मनाने का आयोजन देश में किया जा रहा है। सुना है कि आप उक्त आयोजन के संरक्षक हैं और भारत की प्रधानमन्त्री माननीया इन्दिरा गांधी उक्त समारोह समिति की अध्यक्ष बनने जा रही हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि आप पंडित तुलसीदास को भारत राष्ट्र का परम हितकारी मान रहे हैं, तभी तो आप तुलसी चतुष्शती समारोह के संरक्षक बने। यह भी नहीं कहा जा सकता कि आपने पंडित तुलसीदास के रामचरितमानस का अध्ययन नहीं किया है। भारत के संविधान को आप अमली जामा पहनाने की शपथ ले चुके हैं। यही नहीं, राष्ट्रपति के चुनाव के दौरान जब आप लखनऊ आए थे और उत्तर प्रदेश ‘गिरि जिताओ’ समिति का संयोजक होने के नाते आपने मेरे सभापतित्व में बुलाई गई विधायकों की बैठक को दारुल शफा ए ब्लाक के कॉमन रूम में सम्बोधित किया था। तब भी आपने यही कहा था कि आप जीतने पर भारत के संविधान की मर्यादा प्राणपण से कायम रखेंगे।

‘भारत का संविधान धर्मनिरपेक्ष है। उसमें भारत के प्रत्येक नागरिक को कई मौलिक अधिकार दिए गए हैं। संक्षेप में भारत का संविधान मानव-मानव की बराबरी के सिद्धान्त को स्वीकार करता है, और स्त्री-पुरुष, शूद्र-ब्राह्मण, म्लेच्छ हिन्दू जैसे अमानवीय अन्तर की कल्पना भी नहीं करता। तब फिर आपने उपर्युक्त अमानवीय अन्तर के प्रतिषपक पंडित तुलसीदास की चैथी शताब्दी मनाने को संरक्षण कैसे दिया? क्या यह कार्य संविधन की मर्यादा का उल्लंघन नहीं है? क्या इससे देश के विशाल बहुमत को भारी ठेस नहीं लगती?

‘पंडित तुलसीदास के ग्रन्थों में पुनर्जन्म और भाग्यवाद का ही प्रतिपादन मिलता है। पुनर्जन्म और भाग्यवाद से मानव-मानव में ऊंच-नीच और छुआछूत की भावना अनिवार्य रूप से पनपती है। छुआछूत की भावना को भारत का संविधान अनुचित करार देता है और देश का कानून अस्पृश्यता को जुर्म करार देता है। लेकिन पंडित तुलसीदास की पुस्तक रामचरितमानस में केवट या मल्लाह को अस्पृश्य कहा गया है। ‘लोक वेद सबही विध् नीचा, जासु छांह छुइ लेइअ सींचा।’

‘आज भारत का संविधान किसी जाति को अधम या पापी कहना जुर्म मानता है। पंडित तुलसीदास ने अपने रामचरितमानस में कई जातियों को अधम और पापी कहा है ‘जे वर्णाध्म तेलि कुम्हारा, वपच, किरात, कोल, कलवारा। आभीर, यवन, किरात, खल वपचादि अति अध्रूप जे।।’ एक ओर भारत का संविधान भारत के सभी नागरिकों को समान माने, जिसे अमल में लाने के लिए आप चुने गए हैं, और दूसरी ओर आप उस ग्रन्थ को सम्मान प्रदान करने के लिए संरक्षण दें, जो देश के करोड़ों लोगों को अधम, नीच, पापी, अस्पृश्य कहे, तो इस अन्तर्विरोध का शमन होना असम्भव ही कहा जायेगा।

‘पंडित तुलसीदास शूद्र को शिक्षा देना ऐसी ही समझते हैं, जैसे सांप को दूध पिलाना। यानी शूद्र सांप है और शिक्षा दूध। जनश्रुति के अनुसार सांप को दूध पिलाने से वह अधिक विषैला हो जाता है। उसी प्रकार पंडित तुलसीदास के अनुसार शूद्र विद्या पाने से अधिक खतरनाक हो जाता है। रामचरितमानस के काकभुसुंडी-गरुड़ संवाद में काकभुसंडी पूर्वजन्म में शूद्र होने की बात कहते हुए कहता है अधम जाति में विद्या पाए, भयउं यथा अहि दूध् पिलाए।’

‘भारत का संविधान अनिवार्य शिक्षा लागू करने का संकल्प लेता है और पंडित तुलसीदास शूद्र को विद्या पढ़ाना खतरनाक बताते हैं।

‘उपर्युक्त उदाहरणों से यद्यपि पंडित तुलसीदास की भारत का संविधान विरोधी विषमतामूलक प्रवृत्ति का भली-भांति परिचय देना शायद सम्भव न हो, लेकिन आपके व्यस्त समय को ध्यान में रखकर पत्र का कलेवर बढ़ाना भी ठीक न प्रतीत हुआ। अतः इन उदाहरणों को बटलोई के चावल की भांति परखने के लिए पर्याप्त मानकर मैं आपसे सविनय एवं साग्रह यही निवेदन करूंगा कि आप तुलसी-चतुष्शती समारोह की संरक्षकता से अपने को तत्काल विलग करके इसकी घोषणा कर दें और अपने प्रधनमन्त्री को भी भाग लेने से कतई मना कर दें। हो सकता है कि ब्राह्मणों को गौरव दिलाने के लिए भगीरथ प्रयास करने वाले पंडित तुलसीदास की चतुष्शती समारोह का संरक्षक आपको ब्राह्मण होने के कारण बनाया गया हो। किन्तु आपके महिमामय पद के यह सर्वथा विपरीत होगा, और जिन्होंने आपको वर्ग-विहीन समाज के निर्माण का प्रयास करने वाला समझकर राष्ट्रपति बनाने में मत दिया था, उनको महान क्लेश एवं क्षोभ होगा।

आपका,

रामस्वरूप वर्मा


वर्माजी ने इसी आशय का दूसरा पत्र 27 जून 1970 को तत्कालीन प्रधनमन्त्री इन्दिरा गांधी को लिखा। इस पत्र के मुख्य अंश इस प्रकार हैं-

माननीया इन्दिरा गांधी

महोदया,

समाचार पत्रों से और अन्य प्रकार की खबरों से ऐसा पता चला है कि तुलसी चतुष्शती समारोह की अध्यक्षता आपने स्वीकार कर ली है। यह जानकर मुझे दुख हुआ कि आपने भारत के संविधन के प्रति निष्ठा की शपथ लेने के बावजूद तुलसीदास जैसे साम्प्रदायिक व्यक्ति के चतुष्शती समारोह की अध्यक्षता स्वीकार कर ली।

‘पंडित तुलसीदास की चतुष्शती मनाने में आपकी शिरकत इसलिए तो नहीं है कि आपने भी एक ब्राह्मण परिवार में जन्म लिया है और पंडित तुलसीदास भी ब्राह्मण थे। आपके लिए यह शोभनीय नहीं होगा, क्योंकि आप धर्मनिरपेक्ष भारतीय गणतन्त्र की प्रधानमन्त्री हैं और पंडित तुलसीदास ब्राह्मणवाद के प्रबल पोषक और तथाकथित सनातन धर्म के प्रचारक थे। अतः भारत की प्रधानमन्त्री रहकर आप पंडित तुलसीदास की चतुष्शती में सम्मिलित नहीं हो सकतीं, क्योंकि पंडित तुलसीदास ने अपने रामचरितमानस में शूद्रों, अन्त्यजों, यवनों को अत्यन्त पापी और नीच बताकर भारत की बहुसंख्यक जनता का दारुण अपमान किया है। ऐसा कवि न तो राष्ट्रीय हो सकता है और न राष्ट्र का हितकारी।

‘आप नारी हैं। स्वभावतः आपके दिल में उनके दुख-सुख को समझने की अधिक क्षमता है। पंडित तुलसीदास ने अपने ग्रन्थों में नारी-निन्दा की झड़ी लगा दी है। उनके अनुसार ब्रह्मा ने भी स्त्री के हृदय की गति नहीं जान पाई, क्योंकि वह सारे कपट, पाप और अवगुणों की खान है-‘विध्हिु न नारि हृदय गति जानी, सकल कपट अध् अवगुन खानी।’

इस पत्र में भी वर्माजी ने पंडित तुलसीदास के ग्रन्थों से अनेकों उद्धरण देकर उनसे तुलसी चतुष्शती समारोह से अपना नाता तोड़ने का अनुरोध किया था।

किन्तु, राष्ट्रपति और प्रधानमन्त्री दोनों ने ही दो माह तक उनके पत्र का जवाब नहीं दिया। तब वर्माजी ने उन्हें पुनः क्रमश: 6 अगस्त 1970 और 14 अगस्त 1970 को पत्र लिखे, और पुनः स्मरण कराया कि पंडित तुलसीदास न राष्ट्रीय कवि थे और न उनका रामचरितमानस राष्ट्रीय ग्रन्थ है, बल्कि वह संविधान-विरोधी ग्रन्थ है, जिसके समारोह में भाग लेने से संविधान का उल्लंघन होगा। किन्तु वर्माजी का यह प्रयास भी विफल हुआ, और सरकार द्वारा मानस- चतुष्शदी धूमधाम से मनाई गई।

ये दोनों पत्र रामस्वरूप वर्मा की पुस्तक ‘ब्राह्मण-महिमा’ में आरम्भ में दिए गए हैं। उसके बाद उसमें तुलसीदास और उनकी ब्राह्मण-महिमा पर तीन अध्याय हैं, जिनके शीर्षक हैं: ‘मर्यादापुरुषोत्तम या ब्राह्मण-गुलाम राम’, ‘क्या रामचरितमानस धर्मिक ग्रन्थ है?’ तथा ‘राम और रावण काल्पनिक पात्र।’ यह तात्विक विवेचन उन्होंने देश के उन करोड़ों बहुजन अर्जकों के लिए किया, जो ब्राह्मणवाद से पीड़ित हैं और अज्ञान की गोली खाकर सोए हुए हैं।

पहले अध्याय में उन्होंने राम की मर्यादा को प्रश्नांकित किया है। उसमें उन्होंने कहा कि केवल मर्यादापुरुषोत्तम की रट लगाने से कोई मर्यादापुरुषोत्तम नहीं हो जाता, बल्कि नैतिक मूल्यों के आधार पर ही किसी को मर्यादापुरुषोत्तम कहा जा सकता है। उन्होंने प्रश्न किया कि क्या इस कसौटी पर राम खरे उतरते हैं? उनका उत्तर दिया, नहीं। उन्होंने तर्क दिया: ‘चूंकि बालि व रावण राम के विरोधी थे, अतः उनका अपराध प्राणदण्ड का कारण हुआ और राम के मित्र सुग्रीव व विभीषण उसी अपराध को जीवन भर करते रहे, लेकिन राम ने उसकी कतई परवाह नहीं की।’ उन्होंने कहा कि यही ब्राह्मणवादी नैतिक मूल्य है, जिसे मर्यादापुरुषोत्तम राम ने स्थापित किया। इसे तत्कालीन राजनीति से जोड़ते हुए उन्होंने कहा, ‘यही कारण है कि माननीया इन्दिरा गांधी और कमलापति त्रिपाठी रामचरितमानस का प्रचार लाखों रुपया खर्च करके करवा रहे हैं। ये भी राम के इसी पक्षपात के पोषक हैं और अपने इस कुकर्म या अवगुण को रामचरितमानस की आड़ में ढकना चाहते हैं। पक्षपातपूर्ण आचरण करने वाला राज्य न तो आदर्श कहा जा सकता है, न टिकाउ हो सकता है।’ उन्होंने जोर देकर कहा कि ब्राह्मणवादी शासक पक्षपातपूर्ण न्याय करके ही अपने को मजबूत करते हैं और कायम रहते हैं।

उन्होंने और भी प्रश्न खड़े किए। उन्होंने कहा कि तुलसीदास के राम ने शीलहीन ब्राह्मण को पूजनीय और शूद्र चाहे कितना ही शील-गुण-सम्पन्न हो, उसे अपूजनीय माना है। उन्होंने प्रश्न किया, इतनी अनैतिकता के साथ ब्राह्मणों की सेवा का समर्थन करने वाला राम भला मर्यादापुरुषोत्तम कैसे हो सकता है? वह तो साधरण पुरुष के योग्य भी नहीं है। उन्होंने जोर देकर पूछा कि जो राम यह कहते हों कि उनका जन्म ब्राह्मणों की रक्षा के लिए हुआ है, वह राम मानवतावादी भी कैसे हो सकता है? उन्होंने कहा कि जो राम पूरे रामचरितमानस में बार-बार यही कहते हैं कि उन्हें ब्राह्मण-द्रोही पसन्द नहीं, और वे ब्राह्मणों के द्रोही का नाश करेंगे, वह राम जातीयता और गैर-बराबरी का समर्थक कैसे हो सकता है? वे कहते हैं कि वह राम तो मर्यादा का पालक नहीं, मर्यादा का घातक ही कहा जायेगा। उन्होंने कहा कि ऐसे राम के राज्य की प्रशंसा भारत के ब्राह्मण या उनके पिछलग्गू भले ही करें, पर उसे मानवोचित राज्य नहीं कहा जा सकता।

दूसरे अध्याय में रामस्वरूप वर्मा ने रामचरितमानस को धर्मिक ग्रन्थ माने जाने का खण्डन किया है। यह अध्याय एक घटना से आरम्भ होता है। हुआ यह था कि 1974 में मानस- चतुष्शती के विरोध में उत्तर प्रदेश की विधानसभा में एक विधायक ने रामचरितमानस के एक पन्ने को फाड़कर अपना प्रतिरोध व्यक्त किया था। इस घटना ने ब्राह्मणों में रोष पैदा कर दिया। इस पर वर्माजी ने लिखा कि 1957 में भी एक भूप किशोर नामक विधयक ने रामचरितमानस को सदन में फाड़ा था, पर उस समय कोई शोर नहीं मचा था। इस पर वर्माजी ने लिखा: ‘1957 का उत्तर प्रदेश मानव-समता के आधार पर आजादी पाने के कारण कुछ न कुछ मानववाद का कायल था। इसलिए रामचरितमानस को फाड़ने पर ब्राह्मणवादी मन दबाकर रह गए। किन्तु अब देश तेजी से ब्राह्मणवाद की ओर अग्रसर हुआ है। यह इसी से प्रमाणित है कि सन 1974 में रामचरितमानस का पन्ना फाड़ने पर ब्राह्मणवादी अखबार और लोग हाहाकार मचाए हुए हैं, यानी अब ब्राह्मणवाद अपने चरमोत्कर्ष पर है। और अब किसी की क्या मजाल कि कोई ब्राह्मणवाद का सबसे बड़ा ग्रन्थ फाड़े। यह ब्राह्मणवाद की तौहीन है, और यह तौहीन वह शासक बनकर कैसे सहन कर सकता है?’

वर्माजी ने यह अध्याय इसी घटना को केन्द्र में रखकर लिखा है। ब्राह्मणों की ओर से सर्वोच्च न्यायालय के किसी निर्णय का हवाला दिया गया कि धार्मिक पुस्तक को फाड़ना दण्डनीय अपराध है। इस सन्दर्भ में वर्माजी ने इस तथ्य का खण्डन किया कि रामचरितमानस धर्मिक ग्रन्थ है। उन्होंने कहा कि धर्मिक ग्रन्थ वह होता है, जो धर्म के प्रवर्तक द्वारा लिखा जाता है, या जिसमें धर्म-प्रवर्तक के उपदेशों का संग्रह होता है जैसे त्रिपिटक, जिसमें बु (की वाणी है, या जैसे कुरान, जिसमें मुहम्मद साहब पर नाजिल अल्लाह की आयतें हैं, या जैसे बाइबिल, जिसमें ईसा मसीह के विचार संग्रहीत हैं। उन्होंने प्रश्न किया कि इस आधर पर रामचरितमानस को धर्म-ग्रन्थ कैसे कहा जा सकता है? क्या इसके प्रणेता पंडित तुलसीदास किसी धर्म के संस्थापक थे, या उन्होंने ऐसा दावा किया? फिर ब्राह्मण रामचरितमानस को धर्म-ग्रन्थ क्यों माने हुए हैं? वर्माजी ने इसके उत्तर में कहा कि ‘ब्राह्मणवादी लोग इस साधारण सी पुस्तक को धर्म-ग्रन्थ बनाने पर इसलिए तुले हुए हैं, क्योंकि इसमें ब्राह्मण-महिमा का विशद गान मिलता है।’


वर्माजी ने आगे एक और विचारोत्तजक खुलासा किया, जो बहुजनों की दृष्टि से बहुत ही विचारणीय है। उन्होंने कहा-

‘एक बात इस विवाद को स्पष्ट कर देती है कि रामचरितमानस को धर्म-ग्रन्थ, साहित्यिक ग्रन्थ, आदर्श ग्रन्थ आदि साबित करने वाले प्रायः ब्राह्मण ही हैं, क्योंकि रामचरितमानस ब्राह्मणवादियों का ही ग्रन्थ है। इस ग्रन्थ को पढ़ने से ब्राह्मण की श्रेष्ठता अल्हड़ मन पर बैठ जाती है और अविकसित बुद्धि के अवर्ण लोग ऐसा मानकर ब्राह्मणवादी शोषण के सहज शिकार हो जाते हैं। इसलिए इसे अवर्ण मछलियों को फसांने के लिए सवर्ण वंशी की भाॅंति प्रयोग करने के कारण देश का ब्राह्मण समूह इसकी रक्षा करने में तत्पर है।’

तीसरे अध्याय में वर्माजी ने इस मत का प्रतिपादन किया है कि राम और रावण काल्पनिक पात्र हैं। उन्होंने 1974 में द्रविड़ कड़गम की ओर से तत्कालीन प्रधानमन्त्री इन्दिरा गांधी को लिखे गए पत्र के सन्दर्भ से बताया कि द्रविड़ कड़गम ने प्रधानमन्त्री से उत्तर भारत में द्रविड़ों को आहत करने वाली रामलीला को बन्द कराने का अनुरोध् किया था, क्योंकि उनके अनुसार रावण द्रविड़ था, जिसका जलाया जाना उनके लिए अपमानजनक था। उन्होंने पत्र में यह धमकी भी दी थी कि यदि रामलीला बन्द नहीं की गई, तो वे उसकी प्रतिक्रिया में राम, सीता और लक्ष्मण के पुतले जलाने के लिए विवश हो जायेंगे। इन्दिरा जी ने उनके पत्र का कोई नोटिस नहीं लिया, और परिणामस्वरूप उन्होंने ‘25 दिसम्बर 1975 को रावण-लीला करके राम, लक्ष्मण और सीता के 18 फीट ऊंचे विशाल पुतलों को जलाया।’

वर्माजी ने अनेक पुष्कल प्रमाणों से स्पष्ट किया है कि राम और रावण काल्पनिक पात्र हैं। उन्होंने अपना मत प्रतिपादित किया, ‘ऐसा लगता है, महामना बुद्ध के सम्बन्ध् में लिखे गए अश्वघोष के ‘बुद्धचरितम’ के विरोध् में वाल्मीकीय रामायण का सृजन हुआ।’ उनका मत है कि ‘इतिहास में राम व रावण नाम के राजाओं का वर्णन कहीं किसी राज्यवंश परम्परा में नहीं मिलता।’ उनके अनुसार, ‘राम का त्रेता में पैदा होना और ब्राह्मणवाद की स्थापना के लिए मानववादी रावण को मारना एक कोरी कल्पना है।’ उन्होंने निष्कर्ष दिया, ‘कल्पित पात्रों को लेकर संविधान-विरोधी काम करना सर्वथा निन्दनीय और दण्डनीय ही कहा जायेगा। अतः रामलीला करना सर्वथा अनुचित है। राम-रावण जैसे कल्पित पात्रों के लिए राष्ट्रीय एकता को हानि पहुंचाना पूरे तौर पर अविवेकपूर्ण ही कहा जायेगा।’

मानववाद बनाम ब्राह्मणवाद

रामस्वरूप वर्मा ने ‘मानववाद बनाम ब्राह्मणवाद’ शीर्षक से लिखी पुस्तक में राष्ट्रीयता और हिन्दू राष्ट्रवाद पर गम्भीर चर्चा की है। उन्होंने इस तथ्य की ओर ध्यान आकर्षित किया है कि भारत में अनर्जक, यानी शोषक श्रेणी के लोग भावनात्मक एकता की बातें तो बहुत करते हैं, और एक राष्ट्र होने के नारे भी लगाते हैं, किन्तु वे यह नहीं बताते कि यह एकता कायम कैसे होगी। उन्होंने प्रश्न किया: ‘जिस देश में आठ करोड़ अछूत, चार करोड़ आदिवासी, छह करोड़ मुसलमान तथा एक करोड़ ईसाइयों के हाथ का छुआ पानी पीने में भी रोक हो, ऐसी ब्राह्मणवादी व्यवस्था देश में एकता के रास्ते में बाधक नहीं, तो क्या है? ब्राह्मणवाद के प्रबल स्तम्भ शंकराचार्य जैसे लोग तो शूद्रों और म्लेच्छों को इन्सान भी मानने को तैयार नहीं। फिर इनका बनाया हुआ भोजन करने का तो प्रश्न ही नहीं उठता। यह है ब्राह्मणवाद की राष्ट्र-विरोधी भेद-कारक दुर्नीति, जिसके रहते भारत में एकता असम्भव ही रहेगी।’

भारत के वर्तमान शासक जनतन्त्र में भारतीय संविधान की शपथ खाते हैं, किन्तु ब्राह्मणवाद को पालते-पोसते हैं। वर्माजी के अनुसार, तत्कालीन प्रधानमन्त्री इन्दिरा गांधी ने 11 अप्रैल 1974 को ‘गुरु गंगेश्वर चतुर्वेद संस्थान’ की ओर से वेद-प्रचार हेतु किए जाने वाले 11 दिवसीय आयोजन के अन्तिम दिन वेद-स्थापना संस्कार पूरा किया था। इस अवसर पर उन्होंने कहा था कि वेद ज्ञान का भंडार हैं और वे सहिष्णुता तथा समता की शिक्षा देते हैं। वर्माजी ने इसके खण्डन में कहा कि वेदों में ब्राह्मणों में एकता लाने के लिए तो अवश्य मन्त्र आए हैं, किन्तु उनमें ऐसे मन्त्र भी पर्याप्त हैं, जिनमें आर्यों द्वारा दस्युओं ; शूद्रों के नाश की प्रार्थनाएँ की गई हैं। उन्होंने कहा कि इन्दिरा गांधी का यह कहना कि वेद ज्ञान के भंडार हैं, एकदम सत्य से परे है। वेदों का सृजन आर्यों ने अपने देवताओं को प्रसन्न करने के लिए प्रार्थनाओं के रूप में किया था, जिनमें बहुत सी उफल-जलूल बातें भी भरी पड़ी हैं और वे प्रार्थनाएं भी दुश्मनों; शूद्रो का नाश करने के लिए, धनी होने के लिए तथा जुआ जीतने जैसी बातों के लिए हैं।

क्या ब्राह्मणवाद भारत के अन्दर एकता की भावना, कौम, धर्म या संस्कृति के नाम पर जगा सकता है? इस महत्वपूर्ण प्रश्न का उत्तर वर्माजी ने एक विस्तृत विमर्श में दिया है। उनके अनुसार जो लोग हिन्दू राष्ट्र की कल्पना करके चलते हैं, वे अपने आपको ही धोखा देते हैं। लगभग चार हजार जातियों में विभाजित हिन्दू एक कौम कैसे हो सकती है? उन्होंने जोर देकर कहा कि ब्राह्मणवाद को खत्म किए बगैर भारत का एक राष्ट्र होना असम्भव है।

उन्होंने ब्राह्मणों के आदर्श सूत्र: ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः, सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुःखभाग्भवेत्’ को कोरी लफ्फाजी बताया।

 


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